Tuesday 11 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 11 October 2011
(आश्विन शरद् पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
हम कैसे जी रहें हैं, कैसे जीना चाहिये :
        हमने भूगोल और खगोल का बड़ा अध्ययन किया, परन्तु अपने को ही नहीं जाना, इसलिये निःसन्देह नहीं हो सके, क्योंकि जब हम अपने से भिन्न किसी को जानने का प्रयास करते हैं, तो हमें शरीरों का सहारा लेना पड़ता है; इन्द्रिय-दृष्टि एवं बुद्धि-दृष्टि से ही देखना पड़ता है । ये स्वयं ही सीमित हैं, अनेक प्रतिबन्धों से परिच्छिन्न किये हुये हैं । इनकी पृष्ठभूमि पक्षपातपूर्ण है । इनका निर्णय सत्य नहीं हो सकता ।

        अतः इनके आधार पर प्राप्त की हुई जानकारी निःसन्देह नहीं हो सकती । अब तक यही होता रहा है । जिन्होंने 'स्व' में प्रतिष्ठित होकर अपने को जान लिया, वे निःसन्देह हो गए । उन्होंने सारी सृष्टि का रहस्य पा लिया । परन्तु हम इन्द्रिय-दृष्टि एवं बुद्धि-दृष्टि को सत्य मानकर बार-बार धोखा खाते रहते हैं । असत्य के माध्यम से सत्य नहीं जाना जा सकता । इनके माध्यम से जो जानने में आता है, उसका उपयोग-मात्र हम कर सकते हैं । प्यास और जल दिखाई दे तो जल ले, प्यास बुझा लें । बस, इतना ही कर सकते हैं ।

        इन दृष्टियों से जो सत्य और सुन्दर भासित होता है, उसके पीछे दौड़ते रहे, परन्तु श्रम, शक्तिहीनता एवं मृत्यु के सिवा हाथ कुछ न लगा । अतः हम जानना ही चाहते हैं, तो अपने को जानें । यह सम्भव है, यही आवश्यक है । केवल यही जाना जा सकता है और यही जानना पूर्ण जानना है । इतना जान लेने के बाद फिर और कुछ जानना शेष नहीं रहता ।

(शेष आगेके ब्लागमें)
-'पथ प्रदीप' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ३-४ (Page No. 3-4) ।