Wednesday 12 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 12 October 2011
(आश्विन पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, बुधवार)
 
(गत ब्लागसे आगेका)
हम कैसे जी रहें हैं, कैसे जीना चाहिये :

        अपने को कैसे जानें ? श्रम-रहित होकर । मैं देह नहीं हूँ, देह मेरी नहीं है, मुझे कुछ नहीं चाहिये, मुझे कुछ नहीं करना है - विवेक के प्रकाश में विवेचन के आधार पर ऐसा अनुभव किया जाय और उसी के अनुरूप निर्णय लिया जाय तो विश्राम मिलेगा । शरीरों से असंगता प्राप्त होगी । असंगता की शान्ति में जीवनी-शक्ति स्वतः अपने अविनाशी उद्गम की ओर प्रवाहित हो जाती है । अविनाशी से अविनाशी योग हो जाता है । तत्व-बोध हो जाता है । अभाव का पूर्ण अभाव हो जाता है ।

        सन्त-वाणी में मैंने सुना है कि इसे निजानन्द कहते हैं । बड़ा भारी आनन्द होता है । हम जिस स्तर पर खड़े हैं, वहाँ से उस आनन्द का अनुमान नहीं कर सकते । महर्षि रमण जी को असंगता का आनन्द प्राप्त हुआ था, तो वे कई महीने उसी मस्ती में पड़े रहे । महात्मा बुद्ध को निर्वाण का आनन्द प्राप्त हुआ था, तो वे भी बहुत दिनों तक उसी मस्ती में जंगलों में घूमते ही रहे । जन्म-जन्मान्तर का बंधा हुआ, थका हुआ, तापित, पीड़ित मानव जब विश्राम पाता है, तो उसके आनन्द का क्या कहना !

          अज्ञान का घना अंधकार यकायक जब ज्ञान के प्रकाश से सदा के लिए नष्ट होता है और साधक का सीमित अहं गल कर निज-स्वरूप में समाहित हो जाता है, तो केवल आनन्द-ही-आनन्द रह जाता है । जिसको सम्भाल न सकने पर साधक स्वयं आनन्द-स्वरूप हो जाता है।

(शेष आगेके ब्लागमें)
-'पथ प्रदीप' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ४-५ (Page No. 4-5) ।