Thursday, 13 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 13 October 2011
(कर्तिक कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)
 
(गत ब्लागसे आगेका)
 हम कैसे जी रहें हैं, कैसे जीना चाहिये :

        ज्ञान की अन्तिम परिणति है - निज-स्वरूप से अभिन्न हो जाना । जिसने अपने को जाना, उसने सब कुछ जान लिया । जिसने मरकर जीना सीख लिया, वह अमर हो गया । उसका लोक-परलोक सब कुछ उसी में समा गया । स्वामी रामतीर्थ ने मस्त होकर कहा था - "राम मुझ में, मैं राम में हूँ" । यह उनकी स्वानुभूति है ।

        वह आज भी जन-जीवन में गूंज रही है । युग:युगान्त तक गूंजती रहेगी । यह जीवन का सत्य है । यह अमरत्व है । इससे अभिन्न होने की कला जीवन की कला है । उससे भिन्न प्रकार का जीना जिन्दगी नहीं, मौत का ही रूपान्तर है । मानव-सेवा-संघ ने मानव-मात्र को अमरपद का जन्मजात अधिकारी माना है ।
 
         जो सत्य और शाश्वत है, उसका एक अविभाज्य पहलू है - मधुर। जो सत्य है, वह शाश्वत है, वही मधुर भी है । हम सबकी रचना इन्हीं मूलतत्वों से हुई है । इसलिये हममें जहाँ सत्य की जिज्ञासा है, वहाँ प्रियता की लालसा भी है । लेखिका को स्वयं ही अपने निजी जीवन में ऐसे दीन-हीन क्षणों का अनुभव हुआ है कि जिनमें हृदय के अंतर्तम से यही करुण-कराह उठती थी :-

        'हे मेरे रचयिता ! लम्बी नीरस और शुष्क अवधि के बदले मुझे क्षणभर का रसपूर्ण जीवन दे दो । ज्ञान के प्रकाश में प्रेम का अनन्त सागर लहराता रहे !'

        रसमय जीवन ही सत्य और शाश्वत जीवन है । यही जीवन है । इसकी उपलब्धि की कला ही जीवन की सर्वोतम कला है ।

-'पथ प्रदीप' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ५-६ (Page No. 5-6) ।