Monday, 10 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 10 October 2011
(आश्विन शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लाँगसे आगेका)
हम कैसे जी रहें हैं, कैसे जीना चाहिये :

         शरीर विज्ञान और मनोविज्ञान के अनुसार स्थूल और सूक्ष्म शरीरों की रचना ही इस प्रकार की है कि उन्हें बनाये रखने के लिए समय-समय पर अनेक प्रकार के प्रेरक (Motive) उत्पन्न होते रहते हैं और उनकी पूर्ति भी अनिवार्य होती है । परन्तु यह हमारी भूल है कि हम उसी क्रम को जीवन स्वीकार कर लेते हैं । इस भूल को मिटाना है ।

        शरीरों का पोषण केवल इनकी सुरक्षा की दृष्टि से करें तो हमारा आहार-विहार अपने आप संयमित हो जायेगा । शरीर जीवन नहीं है, जीवन प्राप्ति के लिए साधन-सामग्री है । अतः इसको आवश्यक वस्तुओं के द्वारा पोषित कर इसे परिवार और समाज की सेवा में लगा दें । शरीरों की आसक्ति से रहित हो जाने पर आवश्यक वस्तुओं का अभाव नहीं रह जाता ।

        तन, धन, कुल, परिवार आदि पर से अपने ममत्व का भार हटा लेने पर सबका स्वतः प्राकृतिक विकास होता है । यह लोक को सुन्दर बनाने की उत्तम कला है । आज तन में, मन में, परिवार में और समाज में जो कुरूपता दिखाई देती है, वह हमारे ममत्व का ही दुष्परिणाम है । हम जगत के साथ रहने की कला सिखलें, तो हमारा इनका सम्पर्क सार्थक हो जाय, अर्थात् आसक्ति-रहित व्यक्तियों की सेवा पाकर जगत आनन्द से फूले-फले और जगत की सेवा करके उससे मुक्त होकर व्यक्ति सत्य एवं मधुर से मिल कर कृत्-कृत्य हो जाय ।

        उपर्युक्त रीति से सही प्रवृति के बाद सहज निवृति का नम्बर आता है । सेवा की परिणति शान्ति में होती है । इच्छाओं की चहल-पहल से मुक्त होने पर श्रम-रहित होकर हम 'स्व' में प्रतिष्ठित होते हैं । मैं क्या हूँ ? जीवन क्या है ? जगत क्या है ? आदि-आदि प्रश्नों का सही उत्तर पाकर निःसन्देह होना साधनयुक्त जीवन का फल है ।

(शेष आगेके ब्लाँग्में)
-'पथ प्रदीप' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ २-३ (Page No. 2-3) ।