Sunday, 9 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 09 October 2011
(आश्विन शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं. २०६८, रविवार)
हम कैसे जी रहे हैं, कैसे जीना चाहिये :
        अब तक हमने बहुत कुछ किया, पर करने का अन्त नहीं हुआ बहुत कुछ जाना, पर निःसन्देह नहीं हुए बहुतों को अपना माना, पर हृदय की भूख नहीं मिटी कभी वस्तुओं का अभाव, कभी पराधीनता का दुःख, कभी नीरसता की पीड़ा, कभी लोक की और कभी परलोक की चिन्ता सताती ही रहती है अतः हमें जीना नहीं आया
    
        इस दशा में यदि हम जीवन का मूल्यांकन बदल डालें तो हमें जीने की कला आ जायेगी । शरीरों (स्थूल, सूक्ष्म और कारण) का पोषण-मात्र जीवन नहीं है यह तो सृष्टि का एक स्थूल भाग है । जो कुछ सत्य और मधुर है, उसकी उपलब्धि में ही जीवन है अतः शरीरों के पोषण की क्रिया में-से अपना संवेगात्मक सम्बन्ध हटा लें प्रेरकों (Motives) की उत्पत्ति से उत्पन्न तनाव (Tension) और पूर्ति से प्राप्त आराम (Relief) के परिणाम स्वरूप भासित होने वाले सुख में से महत्व बुद्धि निकाल दें
   
        सत्य, शाश्वत और मधुर से मिलने के लिए यह पहला कदम है । यह कठिन बात नहीं है और यदि इसे कठिन मानेंगे तो दूसरा उपाय भी नहीं है जीवन चाहिये, तो इतना करना ही होगा और हम सभी कर सकते हैं हम जीते तो हैं, पर मृत्यु की राह पर अब इस ढंग से जियें कि जिन्दगी के राह पर जायें
   
(शेष आगेके ब्लाँगमें) -(पथ प्रदीप) पुस्तकसे, पृष्ठ सं॰ १-२ (Page No. 1-2)।