Saturday, 8 October 2011
(आश्विन शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)
सन्त-समागम, भाग-१
(गत ब्लाँगसे आगेका) वैराग्य अग्नि के समान है जो रागरूपी लकड़ी को जलाता है । जिस प्रकार लकड़ी का अभाव होते ही अग्नि अपने आप शान्त हो जाती है, उसी प्रकार राग का अभाव होते ही वैराग्य, और अविचार का अभाव होते ही विचार, तथा अज्ञान का अभाव होते ही योग, स्वतः मिट जाता है । अर्थात् सभी गुण दोष के आधार पर जीवित हैं, अतः दोषों का अभाव होने पर गुण अपने आप मिट जाते हैं । वास्तव में तो जिस प्रकार प्रकाश की कमी ही अँधेरा है, उसी प्रकार गुणों की कमी ही दोष है ।
राग क्यों होता है ?
सुख से राग का जन्म होता है, क्योंकि यदि विषयों में सुख न मालूम पड़े तो राग नहीं हो सकता । विषयों में सुख-भाव अविचार से होता है, अविचार ज्ञान की कमी से होता है । और ज्ञान की कमी अपने को शरीर समझने पर होती है । इन सब कारणों से ही राग का जन्म होता है ।
दुःख क्यों होता है ?
सुख रूप बीज से ही दुःखरूप वृक्ष हरा-भरा होता है, क्योंकि ऐसा कोई दुःख नहीं है जिसका जन्म सुख से न हुआ हो।
दुःख और सुख का परिणाम ?
जो सुख किसी का दुःख बन कर मिलता है, वह मिट कर कभी न कभी बड़ा दुःख हो जाता है, क्योंकि उसका जन्म दुःख से हुआ था । और जो दुःख किसी का सुख बन कर मिला है वह मिटकर कभी न कभी आनन्द में बदल जायेगा, क्योंकि प्राणी सुख से बँधता है और दुःख से छुट जाता है । अर्थात् सुख से दुःख और दुःख से आनन्द मिलता है ।
त्याग का स्वरूप क्या है ?
संसार की अनुकूलता तथा प्रतिकूलता पर विश्वास का अत्यन्त अभाव ही सच्चा त्याग है क्योंकि अनुकूलता से राग और प्रतिकूलता से द्वेष होता है । राग-द्वेष का अभाव हो जाना ही त्याग है ।
जिस प्रकार लड़की पिता के घर कन्या और ससुराल में बहू तथा पुत्रवती होने पर माता कहलाती है, उसी प्रकार त्याग ही प्रेम और प्रेम ही ज्ञान कहलाता है ।
त्याग होने पर आस्तिकता आ जाने से त्याग प्रेम में, और आस्तिकता का यथार्थ अनुभव होने पर प्रेम ज्ञान में बदल जाता है |
-'सन्त-समागम, भाग-१' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ११-१२ (Page No. 11-12) ।