Tuesday, 18 October 2011
(कर्तिक कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)
रोग - अभिशाप है या वरदान ?
१. रोग वास्तव में तप है, क्योंकि यदि रोग न हो तो इंद्रियों के रस से विरक्ति नहीं हो सकती, और न शरीर का यथार्थ ज्ञान होता और न सेवा करनेवालों को अवसर मिलता । सेवा करने से हृदय पवित्र होता है । देखिये, रोग भगवान की कृपा से रोगी का तथा और लोगों का कितना लाभ हुआ ! - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १०९ (Letter No. 109)
२. रोग शरीर का राग मिटाने के लिए, अथवा दूसरों का पुण्य-कर्म बढ़ाने के लिए आता है अथवा आरोग्य शरीरों को सुख प्रदान करने के लिए आता है । रोगावस्था में शरीर के साथ मजाक करनेका अवसर मिलता है । रोग होने पर निज-स्वरूप में निष्ठा हो जानी चाहिए, क्योंकि दुःख से असंगता स्वाभाविक होती है । जैसे टूटे मकान में सूर्य का प्रकाश और वायु अपने आप आते हैं उसी प्रकार रोग आ जाने पर वैराग्यरूपी वायु और ज्ञानरूपी प्रकाश स्वयं होता है । शरीर तथा संसार की अनुकूलता की आशा मत करो । शरीर की सत्यता तथा सुन्दरता मिट जाने पर काम का अन्त हो जाता है । काम का अन्त होते ही राम अपने आप आ जाते है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ ९५ (Letter No. 95)
३. प्राकृतिक विधान के अनुसार रोग वास्तव में तप है । किन्तु साधारण प्राणी उससे भयभीत होकर वास्तविक लाभ नहीं उठा पाते । रोग से शरीर की वास्तविकता का ज्ञान होता है तथा इन्द्रिय-लोलुपता मिट जाती है । भयंकर रोग छोटे-छोटे रोगों को मिटाकर आरोग्य तथा विकास प्रदान करता है । भोग-वासनाओं का अन्त कर देने पर मन में स्थिरता स्वतः आ जाती है । ज्यों-ज्यों स्थिरता स्थायी होती जाती है त्यों-त्यों रोग मिटाने की शक्ति अपने आप उत्पन्न होती जाती है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १४७ (Letter No. 147)
४. शारीरिक दशा कहने में नहीं आती, क्योंकि कथन उसका हो सकता है, जो एक सा रहे । इस सराय में रोग-रूपी मुसाफिर तो ठहरते ही रहते हैं । वास्तव में तो जीवन की आशा ही परम रोग और निराशा ही आरोग्यता है । देह-भाव का त्याग ही सच्ची औषधि है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ ३३ (Letter No. 33)
५. जब प्राणी तप नहीं करता तब उसको रोग के स्वरूप में तप करना पड़ता है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १३२ (Letter No. 132)
(शेष आगेके ब्लाग में)
२. रोग शरीर का राग मिटाने के लिए, अथवा दूसरों का पुण्य-कर्म बढ़ाने के लिए आता है अथवा आरोग्य शरीरों को सुख प्रदान करने के लिए आता है । रोगावस्था में शरीर के साथ मजाक करनेका अवसर मिलता है । रोग होने पर निज-स्वरूप में निष्ठा हो जानी चाहिए, क्योंकि दुःख से असंगता स्वाभाविक होती है । जैसे टूटे मकान में सूर्य का प्रकाश और वायु अपने आप आते हैं उसी प्रकार रोग आ जाने पर वैराग्यरूपी वायु और ज्ञानरूपी प्रकाश स्वयं होता है । शरीर तथा संसार की अनुकूलता की आशा मत करो । शरीर की सत्यता तथा सुन्दरता मिट जाने पर काम का अन्त हो जाता है । काम का अन्त होते ही राम अपने आप आ जाते है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ ९५ (Letter No. 95)
३. प्राकृतिक विधान के अनुसार रोग वास्तव में तप है । किन्तु साधारण प्राणी उससे भयभीत होकर वास्तविक लाभ नहीं उठा पाते । रोग से शरीर की वास्तविकता का ज्ञान होता है तथा इन्द्रिय-लोलुपता मिट जाती है । भयंकर रोग छोटे-छोटे रोगों को मिटाकर आरोग्य तथा विकास प्रदान करता है । भोग-वासनाओं का अन्त कर देने पर मन में स्थिरता स्वतः आ जाती है । ज्यों-ज्यों स्थिरता स्थायी होती जाती है त्यों-त्यों रोग मिटाने की शक्ति अपने आप उत्पन्न होती जाती है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १४७ (Letter No. 147)
४. शारीरिक दशा कहने में नहीं आती, क्योंकि कथन उसका हो सकता है, जो एक सा रहे । इस सराय में रोग-रूपी मुसाफिर तो ठहरते ही रहते हैं । वास्तव में तो जीवन की आशा ही परम रोग और निराशा ही आरोग्यता है । देह-भाव का त्याग ही सच्ची औषधि है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ ३३ (Letter No. 33)
५. जब प्राणी तप नहीं करता तब उसको रोग के स्वरूप में तप करना पड़ता है । - संतपत्रावली-१, पत्र सं॰ १३२ (Letter No. 132)
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