Monday, 17 October 2011
(कर्तिक कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)
प्रश्नोत्तरी
प्रश्न - आसक्ति-रहित होकर कार्य करने से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर - जिस कार्य को करने में अपना सुख निहित नहीं होता, जो सर्वहितकारी दृष्टि से किया जाता है, वह आसक्ति-रहित कार्य कहलाता है ।
प्रश्न - हम दूसरों के दोष क्यों देखते हैं ?
उत्तर - क्योंकि हम अपने दोषों को नहीं देखते ।
प्रश्न - पूजा का क्या अर्थ है ?
उत्तर - संसार को भगवान् का मानकर उन्हीं की प्रसन्नतार्थ संसार से मिली हुई वस्तुओं को संसार की सेवा में लगा देना ही पूजा है ।
प्रश्न - स्तुति, उपासना तथा प्रार्थना का क्या अर्थ है ?
उत्तर - प्रभु के अस्तित्व एवं महत्व को स्वीकार करना ही स्तुति है । प्रभु से अपनत्व का सम्बन्ध स्वीकार करना उपासना है और प्रभु-प्रेम की आवश्यकता अनुभव करना प्रार्थना है ।
प्रश्न - भगवत्प्राप्ति में विघ्न क्या है ?
उत्तर - संसार को पसन्द करना ही सबसे बड़ा विघ्न है ।
प्रश्न - दुःख क्यों होता है ?
उत्तर - सुख-भोग से ही दुःख रूप वृक्ष उत्पन्न होता है । ऐसा कोई भी दुःख नहीं है, जिसका जन्म सुख-भोग से न हुआ हो ।
प्रश्न - दुःख और सुख का परिणाम क्या है ?
उत्तर - जो सुख किसी का दुःख बनकर मिलता है वह मिट कर कभी न कभी बहुत बड़ा दुःख हो जाता है और जो दुःख किसी का सुख बन कर मिलता है वह मिट कर कभी न कभी आनन्द प्रदान करता है । प्राणी सुख से बँधता और दुःख से छूट जाता है । सुख से दुःख और दुःख से आनन्द मिलता है ।
प्रश्न - त्याग क्या है ?
उत्तर - संसार की अनुकूलता व प्रतिकूलता पर विश्वास का अत्यन्त अभाव ही सच्चा त्याग है । क्योंकि अनुकूलता से राग और प्रतिकूलता से द्वेष का जन्म होता है । राग-द्वेष का अभाव हो जाना ही त्याग है। जिस प्रकार लड़की पिता के घर कन्या, ससुराल में बहू और पुत्रवती होने पर माता कहलाती है, उसी प्रकार त्याग ही प्रेम और प्रेम ही ज्ञान कहलाता है । त्याग होने पर आस्तिकता आ जाती है, तब त्याग प्रेम में बदल जाता है और आस्तिकता का यथार्थ अनुभव होने पर प्रेम ही ज्ञान में बदल जाता है ।
-'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ११-१२ (Page No. 11-12) ।
उत्तर - जिस कार्य को करने में अपना सुख निहित नहीं होता, जो सर्वहितकारी दृष्टि से किया जाता है, वह आसक्ति-रहित कार्य कहलाता है ।
प्रश्न - हम दूसरों के दोष क्यों देखते हैं ?
उत्तर - क्योंकि हम अपने दोषों को नहीं देखते ।
प्रश्न - पूजा का क्या अर्थ है ?
उत्तर - संसार को भगवान् का मानकर उन्हीं की प्रसन्नतार्थ संसार से मिली हुई वस्तुओं को संसार की सेवा में लगा देना ही पूजा है ।
प्रश्न - स्तुति, उपासना तथा प्रार्थना का क्या अर्थ है ?
उत्तर - प्रभु के अस्तित्व एवं महत्व को स्वीकार करना ही स्तुति है । प्रभु से अपनत्व का सम्बन्ध स्वीकार करना उपासना है और प्रभु-प्रेम की आवश्यकता अनुभव करना प्रार्थना है ।
प्रश्न - भगवत्प्राप्ति में विघ्न क्या है ?
उत्तर - संसार को पसन्द करना ही सबसे बड़ा विघ्न है ।
प्रश्न - दुःख क्यों होता है ?
उत्तर - सुख-भोग से ही दुःख रूप वृक्ष उत्पन्न होता है । ऐसा कोई भी दुःख नहीं है, जिसका जन्म सुख-भोग से न हुआ हो ।
प्रश्न - दुःख और सुख का परिणाम क्या है ?
उत्तर - जो सुख किसी का दुःख बनकर मिलता है वह मिट कर कभी न कभी बहुत बड़ा दुःख हो जाता है और जो दुःख किसी का सुख बन कर मिलता है वह मिट कर कभी न कभी आनन्द प्रदान करता है । प्राणी सुख से बँधता और दुःख से छूट जाता है । सुख से दुःख और दुःख से आनन्द मिलता है ।
प्रश्न - त्याग क्या है ?
उत्तर - संसार की अनुकूलता व प्रतिकूलता पर विश्वास का अत्यन्त अभाव ही सच्चा त्याग है । क्योंकि अनुकूलता से राग और प्रतिकूलता से द्वेष का जन्म होता है । राग-द्वेष का अभाव हो जाना ही त्याग है। जिस प्रकार लड़की पिता के घर कन्या, ससुराल में बहू और पुत्रवती होने पर माता कहलाती है, उसी प्रकार त्याग ही प्रेम और प्रेम ही ज्ञान कहलाता है । त्याग होने पर आस्तिकता आ जाती है, तब त्याग प्रेम में बदल जाता है और आस्तिकता का यथार्थ अनुभव होने पर प्रेम ही ज्ञान में बदल जाता है ।
-'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ११-१२ (Page No. 11-12) ।