Saturday 15 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 15 October 2011
(कर्तिक कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रश्नोत्तरी

प्रश्न - दुःखी होना और करुणित होना एक बात है क्या?
उत्तर - नहीं, दुःख में जड़ता आती है । करुणा में चेतनता आती है, संसार से सम्बन्ध टूटता है ।

प्रश्न - शारीरिक रोग आने पर दुःख क्यों होता है ?
उत्तर - 'मैं शरीर हूँ' या 'शरीर मेरा है' - ऐसा समझने से दुःख होता है ।

प्रश्न - रोगी को दुःख न सताए, इसके लिए क्या करना चाहिए ?
उत्तर - रोग प्राकृतिक तप है, ऐसा मानकर उसे हर्षपूर्वक सहन कर लेना चाहिए ।

प्रश्न - रोगी व्यक्ति को रोगावस्था में क्या करना चाहिए ?
उत्तर - प्रत्येक अवस्था में प्रभु की अहैतुकी कृपा का अनुभव होता रहे और हृदय उनकी प्रीति से भरा रहे । शरीर के रहने, न रहने से साधकों को कोई लाभ-हानि नहीं होती । शरीर को बनाये रखने की कामना का त्याग आवश्यक है ।

प्रश्न - दुःख क्यों भोगना पड़ता है ?
उत्तर - सुख के भोगी को दुःख भोगना ही पड़ता है, ऐसा नियम ही है । सुख-भोग की रूचि के नाश के लिए रोग आता है ।

प्रश्न - बीमारी से क्यों डर लगता है ?
उत्तर - रोग शारीरिक बल का आश्रय तोड़ने के लिए आता है । उससे साधकों को डरना नहीं चाहिए, अपितु उसका सदुपयोग करना चाहिए ।

प्रश्न - रोग का सदुपयोग क्या है ?
उत्तर - दुःख का प्रभाव होना चाहिए । रोग देह की वास्तविकता का अनुभव करा देता है । शरीर से व्यक्ति को असंग करने में रोग सहायता देता है |

प्रश्न - रोग का निदान या दवा क्या है ?
उत्तर - शरीर के राग से निवृत होना ही साधक का लक्ष्य होना चाहिए। शारीरिक स्वास्थ्य का यथा-शक्ति ध्यान रख कर, शरीर की सेवा करनी चाहिए - ऐसा करने से शरीर के रोग का अन्त हो जाता है । शरीर सेवा-सामग्री है । साधक की प्रार्थना होनी चाहिए - "हे प्रभु ! यह शरीर विश्व के काम आ जाय, अहम् अभिमान-शून्य हो जाय एवं हृदय प्रेम से भर जाय ।"

(शेष आगेके ब्लागमें)
-'प्रश्नोत्तरी' पुस्तक से, पृष्ठ सं॰ ८-९ (Page No. 8-9) ।