Thursday 27 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 27 October 2011
(कर्तिक शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)                                           

प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?
 
        आप जानते हैं, जब कोई प्यारा लगता है, तो प्यारे को तो रस मिलता है, अपने को भी रस मिलता है और इतना रस का प्रवाह बढ़ता है कि प्यारा लगना भी ऐसा ही लगता है कि मानो, प्यार है ही नहीं । प्रेमियों को प्रेम का भास नहीं होता । उन्हें तो प्रेम की भूख रहती है । प्रेमी क्या चाहता है ? वे जहाँ रहें, आनन्द में रहें । उनको भले ही मेरी याद न आए । ऊँचे प्रेमियों की यह दशा होती है कि वे सोचते हैं कि कहीं मेरी याद में उनको पीड़ा हो गई, तो मुझसे सही नहीं जाएगी । उनकी याद में मैं पीड़ित रहूँ, मैं दुखित रहूँ, मैं तड़पता रहूँ, तरसता रहूँ । यदि मेरी याद में उन्हें पीड़ा हुई, तो यह सुनकर मेरा हृदय फट जाएगा ।

        उनकी (संसार के रचयिता की) प्रियता से ही उनकी पूजा करनी है, उनकी महिमा से ही उनकी स्तुति करनी है और उनका होकर ही उनकी उपासना करनी है । उनकी प्रियता ही मेरा जीवन हो जाए । आज उनका जन्मोत्सव है । वे प्रसन्न हैं, वे करुणित हैं, वे बड़े उदार हैं । उनके प्रेमियों ने उन्हें इतना अपनापन दिया है कि वे प्यार को बाँट रहे हैं, बरसा रहे हैं । हम यही कहें कि हे प्यारे ! तुम्हारा प्यार, तुम्हारी आत्मीयता ही मेरा जीवन है, मेरा कोई और जीवन नहीं है, तुम्हीं मेरे अपने हो । यह तुम्हीं ने मुझे अपनी ओर से दी है ।

        आप जानते हैं, मेरे इस कठोर जीवन का मौलिक प्रश्न क्या था ? यह नहीं था कि मैं उनको देखता रहूँ, उनसे मिलता रहूँ । बड़ा छोटा-सा प्रश्न था कि मुझे वह सुख दो, जिसमें दुःख न हो; वह जीवन दो, जिसमें मृत्यु न हो; वह पूर्णता दो, जिसमें अभाव न हो । वे सब कुछ देते हैं । किन्तु मैं सच कहता हूँ कि उनकी प्रियता में जो रस है, वह रस पूर्णता में नहीं है, उस सुख में नहीं है, जो दुःख से रहित है; उस जीवन में नहीं है, जो मृत्यु से रहित है । उनकी प्रियता कितनी रसरूप है ! इस सम्बन्ध में कोई कुछ कह नहीं सका, कह नहीं पाता । जितना महसूस करता है, उतना भी नहीं कह पाता । वह केवल संकेतमात्र है ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)