Wednesday 26 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 26 October 2011
(कर्तिक अमावस्या, शुभ दीपावली, वि.सं.-२०६८, बुधवार)
 
(गत ब्लागसे आगेका)
प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        जो साधक असमर्थता से पीड़ित होते हैं, अशान्ति से पीड़ित होते हैं, पराधीनता से पीड़ित होते हैं, उन्हें वे (संसार के रचयिता) सामर्थ्य प्रदान करते हैं, स्वाधीनता प्रदान करते हैं, अमरत्व प्रदान करते हैं । फिर वे उन्हीं में स्वयं छिपकर रहते हैं । क्यों छिपकर रहते हैं ? कोई स्वाधीन होकर, अमर होकर, शान्त होकर एक बार तो कहे कि हे प्यारे ! यह सब कुछ तुम्हारा दिया हुआ है, सबमें तुम्हीं-तुम हो, और कोई है नहीं; अब तुम प्यारे लग जाओ ! यह माँग उसकी होती है जो शुद्ध है, बुद्ध है, मुक्त है । आप कहेंगे कि शुद्ध-बुद्ध-मुक्त में भी कहीं माँग होती है ? बात तो ठीक है । पर वह काम-रहित है, कि माँग-रहित है ? विचार करो ।
 
        अरे भाई ! मुक्त किसे कहते हैं ? जो काम-रहित है । क्या अनन्त रस की माँग मुक्त में नहीं है ? यदि वह मुक्त में न होती, तो उसे मुक्ति खारी नहीं लगती । मुक्त को मुक्ति भी खारी लगती है । कब ? जब अखण्ड रस की भूख को अनन्त रस की भूख में बदला हुआ पाता है । उनका रस अपार है, अखण्ड है, अनन्त है । अनन्त रस की अभिव्यक्ति उनकी प्रियता में है, उनके बोध में नहीं। उनके बोध में अखण्ड रस है, उनकी प्रियता में अनन्त रस है । वे अपनी ही महिमा से, अपनी करुणा से, अपनी ही उदारता से प्रेरित होकर अपनी प्रियता प्रदान करें - यह भूख साधक की अन्तिम भूख है ।

        वे कैसे हैं, क्या करते हैं, कहाँ हैं - इस पचड़े में न पड़ें । केवल थोड़ी-थोड़ी देर के बाद अगर कोई हूक उठे, अगर कोई पीड़ा उठे, तो यह उठे कि तुम प्यारे लगो, तुम प्यारे लगो ! तुमने सब कुछ दिया है, सभी को दिया है, सदा देते हो; किन्तु तुम प्यारे लगो ! उनका प्यारा लगना उनके लिए रसरूप है और अपने लिए भी रसरूप है । वह रस ऐसा नहीं है कि जिसकी पूर्ति हो । बंधन की निवृति होती है, मुक्ति की पूर्ति होती है अर्थात मुक्ति प्राप्त होती है । किन्तु उनकी प्रियता से अभिव्यक्त जो उनका रस है, उसकी कभी पूर्ति नहीं होती। इसीलिए प्रेमीजन सदैव यही सोचते रहते हैं, उनकी यही पीड़ा रहती है कि हे प्यारे ! तुम प्यार देते हो, तुम सब कुछ देते हो, यह ठीक है; पर तुम मझे तो प्यारे लगो, प्यारे लगो !

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)