Tuesday 25 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 25 October 2011
(कर्तिक कृष्ण त्रयोदशी, नरक चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        महानुभाव ! क्या कहा जाय ? सच बात तो यह है कि कहने और जानने की कोई बात ही नहीं है । क्या जानें, क्या कहें ? वे (संसार के रचयिता) सदैव अपने ही हैं, सब कुछ उन्हीं का है - यह मान लेना ही मानव का परम पुरुषार्थ है, अचूक और अन्तिम उपाय है । यही एक उपाय है । यह उन्होंने स्वयं दिया है । आप सच मानिए, उनके पूजन के लिए उनकी आत्मीयता से भिन्न और कुछ नहीं है । उनकी आत्मीयता से ही उनका पूजन होता है और वे प्रसन्न होते हैं, आनन्दघन होते हुए भी आनन्दित होते हैं और स्वयं सततरूप से देखते रहते हैं । किसको ? जो उनका अपना है उसको । वे उसे देखते रहते है, अपनाते रहते हैं, अपना प्रेम उड़ेलते रहते हैं, अपना सर्वस्व न्यौछावर करते रहते हैं । यह उनका सहज स्वभाव है ।

        हम सब तैयारी के साथ नहीं, सहजभाव से स्वीकार करें कि वे सदैव अपने हैं, अपने में हैं । यह स्वीकार करना कि कोई और नहीं है, कोई गैर नहीं है - यही साधक का जीवन है । जो कुछ सुनने में आया, देखने में आया, समझ में आया, सोंचने में आया - बुद्धि इसे बता कर मौन हो जाती है । तब वे अपना निज-रस प्रदान करते हैं । उनके निज-रस में क्या है ? वह कितना मधुर है, कितना सुन्दर है, कितना प्रिय है ! इसका वर्णन किसी भाषा और भाव से सम्भव नहीं है । उनका निज-स्वभाव ही प्रेमतत्व है अथवा यों कहो निज-स्वभाव तत्व-प्रेम है, उनका निज-स्वरूप तत्व-ज्ञान है और सामर्थ्य उनकी बाह्य महिमा है, अन्तर महिमा नहीं ।

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)