Monday 31 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 31 October 2011
(कर्तिक शुक्ल पंचमी, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन?

        वे तो सदा-सदा ही अपनी महिमा में आप स्थित हैं । अनन्त विशेषण उनके पीछे-पीछे दौड़ते हैं, फिर भी वे सदा निर्विशेष हैं । किन्तु प्रेमियों के प्रेम का पान करने के लिए वे सविशेष हैं, सगुण हैं, साकार हैं वे मिलते हैं, बिछुड़ते हैं और वे स्वयं आकुल-व्याकुल होते हैं और अपने प्रेमियों को आकुल-व्याकुल करते हैं । उनकी लीला का कोई वारापार नहीं है । महानुभाव ! हम सबके जो प्राणधन हैं, जो प्राणेश्वर हैं, निज हैं, आज उनके जन्मोत्सव पर सब कुछ कर डालो । और कुछ करना, जानना या पाना शेष न रह जाय । सोचो भाई, क्या करना है ?  

        मैं सच कहता हूँ कि अगर सम्भव हो सके, तो उनका दिया जो आश्रम है, उनकी दी हुई जो वस्तु है आज उन पर लूटा दो । इस उत्साह में लूटा दो कि आज हमारे प्यारे ने प्रेमियों को रस देने के लिए अपने को प्रकाशित किया है, अपनी महिमा अपने आप बताई है । आप सच मानिए, अगर वे स्वयं न कहते, तो गीतकार की गीता अधूरी रह जाती । उन्होंने कहा कि भैया ! तू सब पचड़े को छोड़ दे । देख, तू मेरा अत्यन्त प्रिय है, तू मेरा अत्यन्त अन्तरंग है, अपना है । अब मैं तुझे अपनी वह बात जो अब तक नहीं बताई है, तुझे बताता हूँ कि मेरे शरण में आ जा, तू मेरी शरण में आ जा ।

        शरणागति प्रभु की अन्तिम गुह्यतम करुणा है, उदारता है, महिमा है । हम सब शरणागत हैं, वे हमारे शरण्य हैं । वे सब कुछ करते हैं और मौज करते हैं हम । हम उनको 'तुम' कहकर पुकारते हैं और वे हमको 'अपना' कहते हैं । आप सोचिए, उन्होंने शरणागतों के मोह का नाश किया है, उन्हींने शरणागतों को अपनी स्मृति दी है और शरणागतों का सब कुछ किया है । वे ही सब कुछ करते हैं । हम शरणागत हैं और उनकी ही दी हुई यह शरणागति है

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)