Sunday 30 October 2011

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 30 October 2011
(कर्तिक शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
प्रभुविश्वासी, प्रभुप्रेमी शरणागत कौन ?

        आज इस बात की बड़ी आवश्यकता है कि हम उनके (संसार के रचयिता के) विश्वास को अपनाएँ और उनसे कहें कि तुम स्वयं अपना विश्वास हमें दे दो, तुम अपनी महिमा में अविचल आस्था कर दो । सब कुछ है तो तुम्हारा ही । मैं भी तुम्हारा ही हूँ । तुमने मेरा निर्माण अपने में से ही किया है, और किसी में से नहीं किया। अपने में से जिसका निर्माण किया है, उसे अपनी आत्मीयता दे दो, दे दो प्यारे ! दे दो ! और कुछ नहीं चाहिए । आप ही सोचिए, और है ही क्या ?

        जिसे आप देख रहे थे, जिस पर आप सोच रहे थे, जिस पर आप मनन और निदिध्यासन कर रहे थे, वह तो सचमुच कुछ नहीं था, कुछ नहीं है । वे ही सब कुछ हैं । जब वे ही सब कुछ हैं, तो उनका विश्वास ही उनको मोहित करता है, उनकी आत्मीयता ही उनको द्रवित करती है, आनन्दित करती है । उनकी प्रियता उनको आनन्द-विभोर कर देती है । अगर माँगना है, तो यही माँगना है; पाना है, तो यही पाना है । कुछ कहना है, तो यही कहना है; कुछ सुनना है, तो यही सुनना है । और कुछ नहीं कहना है, कुछ नहीं सुनना है, कुछ नहीं माँगना है, कुछ नहीं पाना है ।

        तुम मेरे हो, तुम मेरे हो - यही कहना है, यही सुनना है, यही पाना है । और कुछ पाने, कहने और सुनने के लिए है ही नहीं । क्या आज इस महोत्सव के अवसर पर हम उस आत्मीय प्रभु को अपनाएँगे ? उन्हीं से अपने जीवन को गुंजारित करेंगे, महसूस करेंगे ? करेंगे, अवश्य करेंगे । वे ही कृपा करके अपने प्रेमियों की इस माँग को पूरा करने के लिए स्वयं किसी के गोद में लाला बनकर बैठते हैं, किसी के साथ सखा बनकर खेलते हैं, किसी के साथ प्रियतम होकर नित्य प्यार का पान करते हैं । उन्होंने अपनी ही कृपा से, अपनी ही महिमा से प्रेरित होकर अपने को प्रकाशित किया है । भला बताओ, वे अपने आपको प्रकाशित न करते, तो कौन उनकी चर्चा कर पाता, कौन उनके अस्तित्व को स्वीकार कर पाता ?  

(शेष आगेके ब्लागमें) - संतवाणी भाग-6, प्रवचन 36 (अ)