Tuesday, 31 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 31 December 2013 
(पौष कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
व्यर्थ-चिन्तन का स्वरूप और माँग की पूर्ति – 2

        क्या हम मिले हुये की ममता नहीं छोड़ सकते ? अप्राप्त वस्तु अवस्था आदि की कामना नहीं छोड़ सकते ? क्या हम सुने हुये प्रभु को अपना नहीं मान सकते ? क्या हम अवस्थातीत जीवन में आस्था नहीं कर सकते ? कर सकते हैं । तो, जो कर सकते हैं, उसको न करें और जो नहीं कर सकते हैं, उसको करने का प्रयास करें, यही तो मूल भूल है । इस भूल का अन्त आप कर सकते हैं और शान्ति के द्वारा कर सकते हैं । क्योंकि शान्ति प्राप्त होने पर आपके जीवन में सजगता अपने आप आयेगी, अपने आप सामर्थ्य आयेगी । अपने आप आपकी जो वास्तविक माँग है, उसकी जागृति होगी - स्मृति के रूप में । अब प्रश्न केवल इतना रह जाता है कि हम सभी साधक 'साधक' होने के नाते, आवश्यक कार्य पूरा करें, अनावश्यक कार्य का त्याग करें, और कार्य के अन्त में शान्ति का सम्पादन सहज भाव से होने दें। जैसे-जैसे शान्ति का सम्पादन सबल और स्थायी होता जायगा, वैसे-ही-वैसे आवश्यक सामर्थ्य की अभिव्यक्ति, विचार का उदय, प्रीति की जागृति स्वत: होगी । यही है - अखण्ड स्मृति । अखण्ड स्मृति से निराश नहीं होना है । वह आपका अपना जीवन है । वह आपकी अपनी निज की सम्पत्ति है । स्मृति ही तो जीवन है । आप सोचिये कि स्मृति से भिन्न क्या प्रियता कोई अन्य वस्तु है? स्मृति से भिन्न क्या बोध कोई और वस्तु है ? स्मृति से भिन्न क्या प्राप्ति कोई और वस्तु है ? नहीं है । स्मृति का ही रूप है बोध, स्मृति का ही रूप है प्राप्ति, स्मृति का ही रूप है अगाध प्रियता ।

इस दृष्टि से जब आप विचार करेंगे, तो ज्ञात होगा कि व्यर्थ-चिन्तन के नाश में ही अखण्ड स्मृति है, और अखण्ड स्मृति की जागृति में ही जीवन की पूर्णता है । इस पूर्णता से हमें निराश नहीं होना है, अपितु इस पूर्णता के लिये नित-नव उत्कट लालसा जगाना है । लालसा कब जागेगी ? जब आप इस बात को स्वीकार करेंगे कि हम सभी को अखण्ड स्मृति प्राप्त हो सकती है, व्यर्थ चिन्तन मिट सकता है । पर उसके लिये जाने हुए के प्रभाव की आवश्यकता है । किये हुए का प्रभाव, किये हुए के द्वारा नाश नहीं होता । होता क्या है ? जिस भाई ने गुजराती दाल खाई होगी, वह जानता है कि गुजराती दाल में गुड़ भी पड़ता है, नमक भी पड़ता है और खटाई भी पड़ती है । ये तीनों ही चीजें अपना-अपना स्वाद रखती हैं । एक के द्वारा दूसरे का नाश नहीं होता । इसी प्रकार किये हुए का प्रभाव किये हुए से नाश नहीं होता । यह दार्शनिक सत्य है । यदि आप महानुभाव विचार करेंगे, तो आपका यह अपना सत्य मालूम होगा । इसलिये मेरा नम्र निवेदन है भाई, कि जो आपके बिना किये हो रहा है, बिना चाहे हो रहा है, उससे भयभीत न हों, उसका सुख न लें, उसमें तादात्म्य न जोड़ें, अपितु उससे असहयोग करें और जो सदैव आपका अपना है, उसमें चाहे आत्मीयता करें और चाहे उसकी खोज करें । देखिये, खोज और आत्मीयता - ये दोनों ही स्वतंत्र पथ हैं। विचारक खोज करते हैं, श्रद्धावान् आत्मीयता स्वीकार करते हैं । किन्तु दोनों प्रकार के पथ के अनुसरण करने के लिये मिले हुये की ममता का त्याग, अप्राप्त वस्तु की कामना का त्याग, मिले हुये के दुरुपयोग का त्याग अनिवार्य है । इस दृष्टि से हम सब व्यर्थ-चिन्तन से मुक्त होकर, अखण्ड स्मृति से अभिन्न होकर, कृतकृत्य हो सकते हैं । यह निर्विवाद सत्य है ।


 - ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 90-92)

Monday, 30 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 30 December 2013 
(पौष कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

व्यर्थ-चिन्तन का स्वरूप और माँग की पूर्ति – 2

परम उदार प्रभु ने मानव का निर्माण केवल इसलिए किया है कि उसे कोई अपना कहे । आप कहेंगे, क्यों भाई ! अपना कहने में अपने के प्रति कितनी गहरी प्रियता जाग्रत होती है ? इसे वे ही जानते हैं, जिन्होंने किसी को अपना कहा है । पर, किसे अपना कहना है ? जिसे देखा नहीं है। किसे अपना कहना है ? जिसे सुना है । सुने हुए की आत्मीयता में ही प्रियता है, और देखे हुये की निर्ममता में ही निर्विकारता है । मिले हुये की असंगता में ही स्वाधीनता है । इस दृष्टि से निर्विकारता, स्वाधीनता, प्रियता प्रत्येक भाई को प्रत्येक बहिन को मिल सकती है और इसी जीवन में मिल सकती है इसी परिस्थिति में मिल सकती है । इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं करना चाहिये। तात्पर्य केवल इतना है कि व्यर्थ-चिन्तन और अखण्ड स्मृति, ये दोनों एक ही जीवन में हैं, अर्थात् एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । ममता, कामना, तादात्म्य के आधार पर व्यर्थ-चिन्तन की उत्पत्ति और आत्मीयता के द्वारा अखण्ड स्मृति की जागृति स्वत: होती है । यह ऐसी बात नहीं है, जिस पर आप केवल श्रद्धा करके रह जायँ । यह तो ऐसी बात है कि उसको अपना कर अनुभव करें । इस बात का अनुभव करें कि आपका अपना कोई है नहीं । यदि नहीं है, तो क्या आप अकेले नहीं रह सकते हैं ? यदि अकेले नहीं रह सकते, तो कोई आपका अवश्य है । परन्तु आस्था उसमें न हो, जो आपके न चाहने पर चला जाय, बुलाने पर भी न आये। क्या उसमें ममता करें ? ऐसा करते हैं, तो यह हमारी अपनी भूल है ।

सोचिए, अज्ञान है क्या ? अविद्या है क्या ? जाने हुए का अनादर, न जानना नहीं । आप जानते हैं कि जो मिला है, वह आपका व्यक्तिगत नहीं है। आप जानते हैं कि जो मिला है वह 'पर' के लिये है, 'स्व' के लिये नहीं है । किन्तु फिर भी जो अपना नहीं है, उसे अपना मानते हैं । जो  'पर' के लिये है, उसे अपने लिये सँभाल कर रखते हैं । इसी भूल का परिणाम है कि आप व्यर्थ-चिन्तन में आबद्ध हो गये । मेरे भाई ! जो सदैव अपना है, न मानने पर भी अपना है, न जानने पर  अपना है; परन्तु उसको अपना मानने की सामर्थ्य कहाँ चली गई? मेरा निवेदन है कि अखण्ड स्मृति के बिना नीरसता नहीं जायगी, पराधीनता का नाश नहीं होगा, अशान्ति का नाश नहीं होगा । अखण्ड स्मृति के बिना यह सम्भव नहीं है। और अखण्ड स्मृति निर्ममता-निष्कामतापूर्वक आत्मीयता से ही साध्य है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 89-90)

Sunday, 29 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 29 December 2013 
(पौष कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
व्यर्थ-चिन्तन का स्वरूप और माँग की पूर्ति – 1

आज एक प्रथा चल पड़ी है - कब से चली है, यह तो मैं नहीं कह सकता । किन्तु प्रथा है अवश्य। उसे अनादि तो मैं नहीं कह सकता; किन्तु ऐसी प्रथा है, कि जब कोई व्यर्थ-चिन्तन उत्पन्न हो जाय, तब बलपूर्वक आप किसी अन्य चिन्तन को करना आरम्भ कर दे । ऐसा प्राय: हम सभी ने किया है, और बहुत से लोग करते भी हैं। परन्तु बलपूर्वक किये हुए इस चिन्तन का भी प्रभाव अंकित होता जाता है, और जो किया हुआ है, उसका भी चिन्तन होता रहता है । हम अपना मनोनीत रुचिकर चिन्तन करते रहते हैं और किये हुए का चिन्तन अपने आप होता रहता है। इस स्थिति में हम अपने में एक मिथ्या अभिमान और लाद लेते हैं कि हमने इतनी देर बैठकर जप किया, ध्यान किया, पाठ किया । और जब दो साधक आपस में दिल खोलकर मिलते हैं, तब आपस में यही कहते हैं - क्या बतायें, अभी हमारा मन शान्त नहीं हुआ, शुद्ध नहीं हुआ, स्वस्थ नहीं हुआ । एक ओर बलपूर्वक किये हुए चिन्तन का अभिमान, दूसरी ओर व्यर्थ-चिन्तन होने की व्यथा । इस द्वन्द्वात्मक स्थिति से, मेरे जानते, सभी साधक परिचित हैं । ऐसा करते-करते आयु का बहुत बड़ा भाग बीत गया । परन्तु  रोग की निवृत्ति नहीं हुई ।

इस व्यथा से जब कोई साधक पीड़ित हुआ, तब 'उसने' जिसे हम नहीं जानते हैं, जो हमें जानता है, जो सदैव रहेगा, तब भी जब 'यह' नहीं रहेगा, उसने जो इसका आश्रय है, प्रकाशक है - उसको प्रकाश दिया । और प्रकाश यह दिया कि भाई, तुम यह जानते हो कि तुम कर नहीं रहे हो, हो रहा है, चाहते नहीं हो, फिर भी हो रहा है, और तुम उसे देख रहे हो, वह तुम्हारा दृश्य है । और तुम यह भी जानते हो कि कोई दृश्य ऐसा नहीं है, जिसमें सतत परिवर्तन न हो, जिसका विनाश न हो, जिसका अन्त न हो । जब तुम यह जानते हो, तो सतत परिवर्तन होने वाले दृश्य से इतने भयभीत क्यों होते हो ? मेरे अपने मित्र, साथी ! तु अभय हो जा । भय मत कर । उससे तादात्म्य मत जोड़, उसका सुख मत ले । जिससे आप तादात्म्य तोड़ देते हैं, जिससे आप भयभीत नहीं होते हैं, जिससे आप सुख नहीं लेते हैं, वह अपने आप सदा के लिये आपसे अलग हो जायगा । और तुम बिना ही प्रयत्न के स्वत: उस अचिन्त दशा को प्राप्त करोगे, जो तुम्हारी माँग है। किन्तु मेरे प्यारे ! जब अचिन्तता तुम्हारे मन में आ जाय, तब उसे अपना आश्रय मत बनाना, उसको अपनी खुराक मत बनाना, उससे भी तादात्म्य मत जोड़ लेना। तब, अपने आप उसकी स्मृति जागेगी, जो वास्तव में सदैव आपका अपना है । प्रिय की स्मृति अन्य की विस्मृति कराने में समर्थ है । अन्य की विस्मृति दूरी और भेद मिटाने में हेतु है । दूरी के नाश में ही योग की अभिव्यक्ति, भेद के नाश में ही बोध की अभिव्यक्ति और भिन्नता के नाश में ही प्रेम की अभिव्यक्ति होती है। इस दृष्टि से प्रत्येक भाई, प्रत्येक बहिन बड़ी ही सुगमतापूर्वक योग, बोध और प्रेम से अभिन्न हो, कृतकृत्य हो सकते हैं । यह है उस अनन्त का दिया हुआ प्रकाश। जिसका यह प्रकाश है, वह उसका भी है, जो उसे मानता है और उसका भी है, जो उसे नहीं मानता । उसके न मानने पर भी वह उतना ही आपका है, जितना उसका है, जो उसे मानता है । अथवा जितना वह अपना है, उतना ही आपका है उस समय भी, जब उसे नहीं मानते । ऐसे उदार ने मानव का निर्माण किया है ।


 - ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 87-89)

Saturday, 28 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 28 December 2013 
(पौष कृष्ण दशमीं, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
व्यर्थ-चिन्तन का स्वरूप और माँग की पूर्ति – 1

साधकगण गम्भीरता से विचार करें । आपके द्वारा किये हुए कृत्य का परिणाम कोई दूसरा भोगे और उस पर आप आरोप लगावें तो इसमें आपकी बड़ी भारी भूल है। उस भूल को सामने रखकर जब मैं विचार करता हूँ तो मुझे तो स्पष्ट मालूम होता है कि जिसे लोग मन की चंचलता के नाम से कहते हैं, वह एक वर्तमान वस्तुस्थिति है और इसी का नाम व्यर्थ-चिन्तन है । किन्तु जब आप अपनी ओर देखेंगे, तो उस व्यर्थ-चिन्तन के साथ-साथ आपके जीवन में जो आपकी वास्तविक माँग है, उसकी स्मृति भी मौजूद है । परन्तु यह स्मृति बहुत शिथिल है, और व्यर्थ-चिन्तन बहुत सबल है । इस भयंकर परिस्थिति में हमें क्या करना चाहिये ? यही आज का मूल प्रस्तावित विषय है ।

महानुभाव ! धीरजपूर्वक विचार करें । जिस समय आप अपने व्यक्तित्व में अपनी बुद्धि-दृष्टि के द्वारा किये हुए का चिन्तन पाते हैं, उस समय आप यह भी जानते हैं कि यह चिन्तन हमारे न चाहने पर भी हो रहा है । हम नहीं चाहते थे कि किये हुए की पुनरावृत्ति जीवन में हो; किन्तु हमारे न चाहने पर भी ऐसा हो रहा है । यह आप सभी भाई-बहिन जानते हैं । दूसरी बात यह है कि हम कर नहीं रहे हैं, वह स्वत: हो रहा है । इतना ही नहीं, हम चाहते तो हैं कि चिन्तन न हो, किन्तु हमारे न चाहने पर भी, न करने पर भी चिन्तन दिखाई देता है । यह क्या है? यह वही बात है, जैसे निर्मल दर्पण में आप अपना चित्र देखते हैं । मन रूपी निर्मल दर्पण में आप अपने पूर्व कृत्य के चित्र को देखते हैं । अथवा भविष्य में जो करना चाहते हैं, उसको देखते हैं । तात्पर्य यह है कि जो कार्य जमा है, उसे देखते हैं, जो कर चुके हैं, उसे देखते हैं । और ऐसा जो आप देखते हैं, वह आपको अच्छा क्यों नहीं लगता ? वह इसलिये अच्छा नहीं लगता कि जो कर चुके हैं, उसके परिणाम से आप परिचित हैं । उसका परिणाम क्या है ? न वह वस्तु है, न वह परिस्थिति है, न वह अवस्था है, जिसमें उसका चिन्तन किया गया । केवल उसका चिन्तन मात्र है । और चिन्तन आपके जीवन में उस स्मृति को ढक लेता है, जो किसी की प्रियता है, जो किसी का बोध है, जो किसी का योग है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 86-87)

Friday, 27 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 27 December 2013 
(पौष कृष्ण नवमीं, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

व्यर्थ-चिन्तन का स्वरूप और माँग की पूर्ति – 1

उपस्थित महानुभाव तथा भाई और बहिन ! हम सब मानव होने के नाते साधक हैं । साधक उसको कहते हैं जिसका कोई साध्य है, जिसकी कोई माँग है और जिस पर कोई दायित्व है । अब विचार यह करना है कि हमारी जो माँग है क्या हमें उसका भलीभाँति अनुभव है ? यदि अनुभव है, तो माँग की जाग्रति में ही काम की निवृत्ति होती है, अर्थात माँग की जागृति से मानव अकाम हो जाता है, अपनी आवश्यकता का अनुभव करने पर। आवश्यकता का अनुभव कब होता है ? जब हम अपनी वर्तमान वस्तु-स्थिति से परिचित होते हैं, और वर्तमान वस्तुस्थिति से परिचित कब होते हैं ? जब कार्य के आदि और अन्त में हम शान्त रहने का स्वभाव बनाते हैं । जब तक हम आवश्यक कार्य को पूरा करके और अनावश्यक कार्य का त्याग करके शान्त नहीं हो जाते, तब तक हमें अपनी वस्तु-स्थिति का यथेष्ट परिचय नहीं होता । और जब हम अपनी वस्तु-स्थिति से ही अपरिचित रहते हैं, तब हमारी माँग क्या है, हम पर दायित्व क्या है, यह प्रश्न जीवन का प्रश्न नहीं होता, वर्तमान का प्रश्न नहीं होता।

आप सभी भाई-बहिनों को इस बात का अनुभव होगा कि जब आप थोड़ी देर के लिये भी श्रमरहित होते हैं, अहंकृति-रहित होते हैं, तब अपनी वर्तमान वस्तुस्थिति में आगे-पीछे का चिन्तन पाते हैं । आगे-पीछे के चिन्तन का अर्थ क्या है ? उसका अर्थ है, जो कर चुके हैं, उसका चिन्तन, अथवा जो करना चाहते हैं, उसका चिन्तन ।

गम्भीरता से विचार करें । जो कर चुके हैं वह स्वरूप से विहीन है और जो करना चाहते हैं, वह भी वर्तमान में उपस्थित नहीं है । इससे यही सिद्ध हुआ न, कि व्यर्थ-चिन्तन के रूप में जिस वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, अवस्था आदि का चिन्तन हो रहा है, वह वर्तमान में नहीं है, अर्थात 'नहीं' का चिन्तन ही व्यर्थ-चिन्तन है । इस दशा को ही कुछ लोग अपनी भाषा में कहते हैं - मन की चंचलता । मन की चंचलता कहो, अथवा व्यर्थ-चिन्तन कहो, यह एक दशा है। और दशा के मूल में भूल यह है कि जो वर्तमान में नहीं है, उसका जब चिन्तन होता है, तब हम उस होने वाले चिन्तन के प्रभाव से या तो भयभीत हो जाते हैं या उसका सुख लेने लगते हैं । इतना ही नहीं, उससे इतने तद्रूप हो जाते हैं और कहने लगते हैं - क्या बतायें, हमारा मन बड़ा खराब है, वह इधर-उधर की बातें सोचता है । परन्तु यहाँ पर गम्भीरता से विचार करना है कि मन क्या कोई स्वतन्त्र कर्त्ता है ? कोई लेखक कहे कि कलम बहुत खराब है, हम नहीं चाहते, पर वह अपने आप लिखने लगती है । यदि ऐसा कोई लेखक कहे, तो आप क्या निर्णय देंगे ? यही न कहेंगे, मालूम होता है, उसका मस्तिष्क ठीक नहीं है । क्योंकि कलम तो लिखने का साधन है, करण है । क्या कलम लेखक है ? लेखक स्वयं लिखता है, और कहता है, कलम लिखती है । इसी प्रकार अपने किये हुए का प्रभाव अपने में अंकित है, अथवा जो हम करना चाहते हैं, उसका प्रभाव अपने में अंकित है । और जब वह प्राकृतिक नियम के अनुसार हमारे न चाहने पर भी विश्राम काल में उत्पन्न होता है, तब हम अपने उस प्रभाव को मन की चंचलता के नाम से कहने लगते हैं । इतना ही नहीं, बड़े-बड़े धुरन्धर लोगों ने मन की बड़ी घोर निन्दा की है । किन्तु मन यदि हमारी तरह बात करता होता, उसका स्वतन्त्र व्यक्तित्व होता, तो मेरे जानते, वह आपको ऐसी बात नहीं करने देता । परन्तु वह तो बेचारा कर्त्ता है नहीं, कर्त्ता तो आप हैं । इसलिये आप मनमाने ढंग से अपने ही मन की, अपने ही द्वारा निन्दा करते रहते हैं, और उस कृत्य को आप अपनी समझदारी समझते हैं । सोचते हैं, हम बड़े अच्छे आदमी हैं, हम अपने मन की बुराई कर सकते हैं, और हम मन के दोषों को जानते हैं ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 84-86)

Thursday, 26 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 26 December 2013 
(पौष कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान निर्दोषता में आस्था - 2

आप जानते हैं, दिखाई वह चीज देती है, जो दूर हो । जो चीज दूर होती है, वही दिखाई देती है । जो भिन्न होती है, वह भासित होती है। अगर किसी को अपने में ईमानदारी दिखाई देती है, तो कम से कम वह उससे दूर जरूर है; अगर भासित होती है, तो भिन्न जरूर है । जो चीज अभिन्न हो जाती है, जो चीज प्राप्त हो जाती है, वह न दिखाई देती है, न उसका भास होता है। इसलिये मेरे भाई, अगर हमें अपना दोष दिखाई देता है, तो हम उससे अलग जरूर हैं, भिन्न जरूर हैं । तो देखना किसको है ? अपने दोष को, पर हम देखते क्या हैं ? पराये को, पराये दोष को और पराये को देखते ही हम दोषी हो जाते हैं और अपने दोष को देखते ही निर्दोषता की ओर अग्रसर होते हैं । अब आप सोचिये, पर-दोष दर्शन में क्या लाभ है और निज दोष-दर्शन में क्या लाभ है? आपको मानना ही पड़ेगा कि पर-दोष-दर्शन के समान अपनी कोई क्षति नहीं है और निज-दोष-दर्शन के समान अपना कोई लाभ नहीं है । इस दृष्टि से जब हम लोग अपने-अपने सम्बन्ध में विचार करेंगे, तब बड़ी ही सुगमतापूर्वक जो मानव-जीवन का चरम लक्ष्य है, जो मानव-जीवन की महिमा है कि हम अपने लिए, जगत् के लिए, प्रभु के लिए उपयोगी हो सकते हैं, वह प्रत्यक्ष हो जायगी । इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं है ।

आप जानते हैं ? आज यदि कोई यह कहे कि हम भूतकाल के आधार पर किसी निर्दोष को अपना मित्र बनाना चाहते हैं, तो उसे निराश होना पड़ेगा। भगवान् यदि यह विधान बनायें कि हमें ऐसा भक्त चाहिए, जिसका भूतकाल सर्वांश में निर्दोष रहा हो, तो भगवान को अकेला ही रहना पड़ेगा । परन्तु आप जानते हैं, कि प्रभु पतित-पावन हैं । इसका मतलब क्या यह नहीं हुआ कि हम पतित से दोस्ती कर सकते हैं, पतित के साथ सम्बन्ध जोड़ सकते हैं ? परन्तु कब? जब वर्तमान निर्दोषता में आस्था रखे, तब । देखिये, न्याय का अर्थ क्या है? न्याय का अर्थ है अपने अपराध से परिचित होना । न्याय का यह पहला अंग है। दूसरा अंग है, उससे पीड़ित होना । उसका तीसरा अंग है, अपराध को न दोहराने का निर्णय करना । यह हुआ न्याय । इसका फल है, निर्दोषता के साथ अभिन्नता। उसका फल है, जीवन का उपयोगी सिद्ध होना । इस प्रकार का न्याय प्रत्येक भाई, प्रत्येक बहिन अपने साथ कर सकने में समर्थ हैं । अपने प्रति किया हुआ न्याय अपने को निर्दोषता से अभिन्न करता है और आप जानते हैं, कि निर्दोष जीवन में ही आवश्यक सामर्थ्य की अभिव्यक्ति होती है, निर्दोष जीवन में ही निस्न्देहता के लिए विचार का उदय होता है और निर्दोष जीवन में ही प्रेम का प्रादुर्भाव होता है ।

इस दृष्टि से यह निर्विवाद है कि सर्वतोमुखी विकास एक मात्र निर्दोष जीवन में ही निहित है और उसका उपाय है - की हुई भूल को न दोहराना, जानी हुई बुराई को न करना, अपने दोषों को देखना और निर्दोषता की स्थापना कर निश्चिन्त तथा निर्भय हो जाना । यही अचूक उपाय है अपने को सफल बनाने का। यदि आपको यह उपाय जँचे, रुचे तो आप उसको अपनायें और उसको अपनाकर मानव-जीवन के महत्त्व को अनुभव करें । अपने को अपने लिए, जगत् के लिये, प्रभु के लिये उपयोगी बनाकर कृतकृत्य हो जायँ, यही मेरी सद्भावना है।


 - ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 82-84)

Wednesday, 25 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 25 December 2013 
(पौष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

वर्तमान निर्दोषता में आस्था - 2

आप स्वयं अपने सम्बन्ध में देखें कि क्या कारण है कि लोग मेरी ईमानदारी को, मेरी सहृदयता को, मेरी उदारता को महत्त्व नहीं देते? मेरे जानते, जिस गुण के साथ अहं लग जाता है, वह गुण भयंकर दोष में बदल जाता है । इसलिए भाई, मानव होने के नाते आपका जो महत्त्व है, वह वैभव होने के नाते नहीं है । वैभव वह रस नहीं दे सकता, जो रस मानवता में है, जो जीवन मानवता में है । जो महत्ता मानवता में है, वह महत्ता आपको किसी की उदारता से कभी भी नहीं मिल सकती, यह निर्विवाद सत्य है । इसलिये भाई, आप बड़े ही सुन्दर हैं ।

क्यों ? इसलिये कि आपका वर्तमान निर्दोष है, यों । आप जानते हैं अपनी भूल को, आप छोड़ सकते हैं अपनी भूल को । जब आप अपनी भूल को जानकर उसे छोड़ सकते हैं और वर्तमान आपका निर्दोष है, तो बताइये, आपको और क्या चाहिए ? आप तो सुन्दर हैं ही, इसमें कोई सन्देह थोड़े ही है । लेकिन यदि आप अपनी वर्तमान निर्दोषता को सुरक्षित नहीं रख रकते, की हुई भूल को दोहराना ही चाहते हैं, जानी हुई बुराई को करना ही चाहते हैं तो दुनियाँ में किसी की शक्ति नहीं है, जो आपको शान्ति दे सके, जो आपको प्रसन्न रख सके । आपकी शान्ति आपके अधीन है, आपकी प्रसन्नता आपके अधीन है, आपकी महिमा आपके अधीन है । यह स्वाधीनता मंगलमय विधान से प्रत्येक भाई को, प्रत्येक बहिन को मिली है । इस मिली हुई स्वाधीनता का आदर करें, उपयोग करें । आप अपने को दूसरों की दृष्टि में जैसा देखना चाहते हैं, अपनी दृष्टि में हो जायेंगे । यह कसौटी है कि जब हम अपनी दृष्टि में सुन्दर हो जाते हैं, तब सुन्दर कहलाने की रुचि नाश हो जाती है । आज यदि हम चाहते हैं कि लोग हमें भला समझें, तो उसका अर्थ है कि हम सचमुच उतने भले नहीं हैं । लोग तो भला समझते ही हैं, लोग तो भला समझेंगे ही; किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि हम भले हो गये । भले होने की कसौटी यह है - भले कहलाने की रुचि नाश हो जाय, जीवन में यह प्रश्न ही न आये कि लोग हमें भला समझें । जिसे यह मालूम होता है कि मैं ईमानदार हूँ लोग मुझे ईमानदार मानें, तो समझना चाहिए कि इसमें कोई बेईमानी छिपी हुई है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 81-82)

Tuesday, 24 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 24 December 2013 
(पौष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान निर्दोषता में आस्था - 2

आप मानव है, आपकी बड़ी महिमा है, आपका बड़ा महत्त्व है आप बड़े सुन्दर हैं । परन्तु मेरे भाई, वह कौनसी घड़ी होगी, जब आपके लिये पराधीनता की वेदना असह्य होगी, जब आप पराधीनतापूर्वक रहना सहन न कर सकें ? पराधीनता इस बात में नहीं है कि मैं भूखा हूँ, मुझे भोजन नहीं मिलता । ऐसी पराधीनता पराधीनता नहीं है । निर्णय कर लो, प्यारे भोजन! यदि तुम्हारे बिना शरीर नाश हो सकता है, तो तुम भी मेरे बिना सड़ सकते हो! तब फिर पराधीनता क्या है ? यदि हमारा जीवन किसी की उदारता पर जीवित रहा, तो वह जीवन नहीं है । दुखी से दुखी मानव भी उतना ही बड़ा मानव है, जितना अपने को सुखी से सुखी मानव मानता है । क्यों ? इसलिये नहीं कि वह अमुक परिस्थिति में है, वरन् इसलिये कि वह मानव है । इसलिये मेरे भाई, अगर कोई सुख में उदार नहीं है, तो हम दुखियों को तो दुःख में विरक्त होना चाहिए । विरक्ति का अर्थ क्रोध नहीं है, विरक्ति का अर्थ क्षोभ नहीं है, विरक्ति का अर्थ विद्रोह नहीं है । विरक्ति का अर्थ है - असंग हो जाना, निरपेक्ष हो जाना, अनपेक्ष हो जाना । तो, मेरा निवेदन है - अगर सुखी उदारता के बिना भी रह सकता है, तो दुःखियों को तो विरक्ति के बिना नहीं रहना चाहिये । जब दुखी विरक्ति को अपनायेंगे, तब सुखी की उदारता आपके पीछे-पीछे दौड़ेगी; किन्तु इसे अपना महत्व मत मान लेना । यह मत मान लेना कि यह मेरा महत्त्व है कि मेरे पीछे बहुजन चलता है, मेरे पीछे आदर चलता है, मुझे मान-पत्र मिलते हैं, मुझे ऊँचा स्थान मिलता है । यही महत्ता, यही प्रमाद आपको फिर पराधीन बना देगा ।

इसलिये भाई, दूसरे लोग मुझे कैसा मानते हैं, यह तो वे जानें ! पर मैं तो आपसे कह सकता हूँ कि मुझे लोग जितना अच्छा कहते हैं, उससे मैं कम अच्छा हूँ और लोग मुझे जितना बुरा समझते हैं, उससे अधिक बुरा हूँ । कहो तो लिख कर दे दूँ । अगर आपको इसी में सन्तोष है कि हमारी बुराई सारा संसार जान ले, तो मैं भरी सभा में कहता हूँ कि आप लोग जितना मुझको बुरा समझते हैं, उससे मैं अधिक बुरा हूँ और जितना आप लोग अच्छा समझते हैं, उससे कम अच्छा हूँ। अब देखिये, इसमें मेरा क्या बिगड़ गया ? बताओ जरा ! क्या मैं उस जीवन को पसन्द करूँगा, जो आपकी उदारता पर टिका हो ? नहीं-नहीं, कोई विचारशील मानव उस जीवन को पसन्द नहीं करेगा । इसलिये मेरे भाई, इस भ्रमात्मक धारणा को जीवन से निकाल दो कि लोग हमें कैसा समझते हैं, लोग हमें क्या समझते हैं । अब कोई मुझसे पूछे कि इस सम्बन्ध में मेरा विचार क्या है ? तो मैं कहूँगा कि मेरा यह विचार है, यह अनुभव है कि संसार इतना सुन्दर है कि वह मुझको ही नहीं, सभी के सम्बन्ध में उसकी यह उदार मान्यता है कि वह सभी को जितने वे अच्छे होते हैं, उससे अधिक अच्छा समझता है और जितने बुरे होते हैं, उससे कम बुरा समझता है । क्यों, ऐसा क्यों है ? तो कहना होगा कि यह इसलिये ऐसा है कि संसार ने हमें 'गैर' नहीं माना, संसार ने हमें 'और' नहीं कहा। माँ अपने बच्चों के दोषों को न देख कर गुणों को ही देखती है और दोषों को देखकर स्वयं दुःखी होती है, स्वयं व्यथित होती है, क्षोभित नहीं होती । तो जिस प्रकृति की गोद में हम पले हैं, उसका यह स्वभाव है कि संसार किसी का ऋणी नहीं रहता, प्रभु किसी के ऋणी नहीं रहते, कर्त्तव्य-निष्ठ किसी का ऋणी नहीं रहता, गुरु किसी का ऋणी नहीं रहता । यह निर्विवाद सत्य है । इसलिये मेरे भाई, इस बात को आप अपने मन से निकाल दें और सदा के लिये निकाल दें कि लोग हमारे बारे में सोचते क्या हैं ?


 - ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 79-81)

Monday, 23 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 23 December 2013 
(पौष कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान निर्दोषता में आस्था - 2

यदि कोई कहे, नहीं-नहीं, हम तो भौतिकवादी हैं । तो भैया, सोचो, अगर तुम भौतिकवादी हो, तो विचार करो कि भौतिकवादी का अर्थ क्या है? अगर तुम्हारी मान्यता में जगत् है, तो फिर कोई भी वस्तु तुम्हारी है या जगत् की ? आप विचार करें । अगर जगत् की स्वीकृति है, तो आपके पास जो कुछ है, वह जगत् का है । निर्मम होकर यदि विश्व-प्रेम से आपका जीवन परिपूर्ण नहीं है, तो फिर कैसा भौतिकवाद ? आत्मरति से भी जब आपका अपना जीवन परिपूर्ण नहीं है, तो कैसा अध्यात्मवाद ? प्रभु-प्रेम से यदि आपका जीवन परिपूर्ण नहीं है, तो कैसा ईश्वरवाद ? विचार करें, और गम्भीरता से विचार करें । इस प्रकार विचार करना ही मानव-सेवा-संघ की सत्संग-योजना है ।

परन्तु कितने दुःख की बात है कि हम अपनी ओर देखते ही नहीं और देखते भी हैं, तो इस विचार के साथ कि किस अंश में उन्होंने मेरे साथ वह किया, जो उन्हें मेरे साथ नहीं करना चाहिये था । मान लो, किसी ने वैसा नहीं किया; किन्तु यह भी तो सोचो कि तुम्हें उसके साथ क्या करना चाहिए । हमें तो उसके साथ वही करना है कि जो करना चाहिये । यदि आप ऐसा करते हैं, तो मैं आपसे पूछता हूँ कि फिर दुबारा क्या कोई आपके साथ बुराई करने का साहस कर सकता है ? मेरे जानते तो नहीं कर सकता । किन्तु अनेक बार हमारे ऊपर जो दूसरों के द्वारा आक्रमण होते हैं, दूसरों के आक्षेप होते हैं, दूसरों की आलोचनायें होती हैं, वे क्यों ? स्पष्ट है कि हम वह नहीं करते, जो हमें उनके साथ करना चाहिये । परिणाम यह होता है कि हमारे साथ वह होता रहता है, जो दूसरों को नहीं करना चाहिये । मैं जानना चाहूँगा कि यह रोग कब तक रखना है ? कब तक हम यह सोचते रहेंगे कि हमको दूसरों ने आदर नहीं दिया, प्यार नहीं दिया, हमारी ईमानदारी में विश्वास नहीं किया, हमको अच्छा आदमी नहीं समझा। इस बेबसी के जीवन से क्या शान्ति मिलेगी ? भाई, मेरा तो विश्वास है कि सारी दुनियाँ मुझे चाहे जैसा समझे, पर मैं वैसा रहूँ जैसा रहना चाहिये । यही उपाय है अनादर की पीड़ा से, अपमान की पीड़ा से बचने का । किन्तु हम आज दूसरों के सर्टीफिकेट पर अपने को शान्त रखना चाहते हैं, दूसरों की उदारता पर आज हम जीना चाहते है । मेरा विचार है कि यह मानव-जीवन का घोर अपमान है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 78-79)

Sunday, 22 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 22 December 2013 
(पौष कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७०, रविवार)

वर्तमान निर्दोषता में आस्था - 2

हम सब साधक हैं । साधक होने के नाते हम सबको अपने-अपने सम्बन्ध में विचार करना है । आप कहेंगे, कैसे विचार करें ? इस सम्बन्ध में मेरा यह निवेदन है कि भाई, अगर आप ईश्वरवादी हैं, ईश्वर-विश्वास आपके जीवन में है, तो अपने से पूछें कि ईश्वर से अच्छी भी क्या कोई चीज है? अगर ईश्वरवादी की दृष्टि में ईश्वर से अच्छी भी कोई चीज है, तब तो वह यह कह सकता है कि मुझे ईश्वर प्यारा नहीं लगता, उसमें मेरा मन नहीं लगता । किन्तु यदि वह मानता है कि ईश्वरवादी के लिये ईश्वर सबसे अच्छा है और एक ही है, और फिर भी वह यह कहता है कि मेरा प्रभु में मन नहीं लगता, तब यह बात कहाँ तक तर्कयुक्त है ? भाई, क्या सबसे अच्छी चीज में आपका मन नहीं लगेगा? मानव-सेवा-संघ इस प्रकार का सुझाव ईश्वरवादी को देगा कि भाई, देखो, यदि तुम ईश्वर को मानते हो, तो क्या यह मानते हो कि उससे अच्छी और भी कोई चीज है ? उससे अच्छी यदि और कोई चीज है, तो फिर ईश्वर कैसा ? और यदि तुम ईश्वर को मानते हो, तो क्या वह तुम्हारा अपना नहीं है ? अब आप स्वयं विचार करें ! सबसे अच्छा हो, अपना हो, फिर भी प्यारा न लगे और प्यारा लगे, तब भी उसमें मन न लगे, क्या यह सम्भव है ? यह कभी सम्भव नहीं है । अब आप विचार करें, आपका ईश्वरवाद आपके लिये उपयोगी है ।

यदि आप कहें कि नहीं-नहीं, हम तो अध्यात्मवादी हैं । अच्छा भाई, अध्यात्मवाद की दृष्टि से 'अपने' से सुन्दर कोई चीज है क्या ? किसी भी अध्यात्मवादी से पूछिये । किसी अध्यात्मवादी ने 'यह' के सम्बन्ध में ऐसा विचार नहीं किया है । 'यह' के सम्बन्ध में यह राय कायम नहीं की । सभी अध्यात्मवादियों ने 'यह' को 'अपने' से निम्न कोटि का ही स्वीकार किया है । मेरे जानते, तो किसी अध्यात्मवादी ने यह स्वीकार नहीं किया कि आत्मा से शरीर अधिक महत्त्व की वस्तु है, आत्मा से जगत अधिक महत्त्व की वस्तु है । ऐसा मेरे जानते, किसी अध्यात्मवादी ने नहीं कहा । जब नहीं कहा, तब आप अपने में संतुष्ट क्यों नहीं होते ? यदि आप अपने में संतुष्ट नहीं हैं, तो आपका जीवन तो यही सिद्ध करता है कि आप अध्यात्मवादी नहीं हैं । यदि मैं अपने में सन्तुष्ट नहीं हूँ तो मेरा जीवन तो यही सिद्ध करेगा कि मैं अध्यात्मवादी नहीं हूँ । फिर भी कथन करें आप अध्यात्मवाद का, तो इससे कोई लाभ होने वाला नहीं है। इसलिये मेरे भाई, अगर आप अध्यात्मवादी हैं, आपने अपनी सत्ता को स्वीकार किया है, तो अपने में आपकी अपनी रति होनी चाहिये । आप अपने में अपने को सन्तुष्ट रख सकें, तब न आपका अध्यात्मवाद सिद्ध होगा, तब न हमारा अध्यात्मवाद सिद्ध होगा । इसलिये मेरा निवेदन है कि अपने सम्बन्ध में विचार करना तभी सार्थक होगा कि जैसा आप मानते हैं, वैसे आप अभी, अभी, अभी हो जायँ ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 77-78)

Saturday, 21 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 21 December 2013 
(पौष कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान निर्दोषता में 
आस्था - 1

एक भले आदमी मुझसे कहते थे कि जब तक हम किसी की बुराई नहीं कर लेते, हमारा खाना ही नहीं पचता । दशा है यह ! यह रोग है, और मानसिक रोग है । यह क्षोभ की आवाज है, यह क्रोध की आवाज है, यह प्रमाद की पुकार है । इसलिये मेरा निवेदन है कि हम सिद्ध बनकर आपसे बात नहीं कर रहे हैं । हमने सिद्ध बनकर संस्था का निर्माण नहीं किया है। हमने तो अपने को, अपने साथियों को साधक माना है । हम साधक हैं, और साधक होने के नाते यदि आप हमारा उपकार करना चाहते हैं, हमारा कल्याण चाहते हैं, तो कम से कम हमारी बात हम से ही कहें । हमारी बात दूसरों से क्यों कहते हैं और दूसरों की बात आकर हमसे क्यों कहते हैं ? उनका काम है, वे कहें। परन्तु लोगों की ऐसी आदत बन गई है । क्या ? स्वयं आयेंगे - साहब मैं आया हूँ और अमुक भी आया है । अरे, क्या उसके मुँह नहीं है ? क्या वह मेरा परिचित नहीं है ? आप जानते हैं, इसमें क्या छिपा हुआ है ? इसमें छिपा हुआ है - बताने वाले का अपना एक प्रभुत्व । मैं ऐसी बातों की बिलकुल परवाह नहीं करता। इसलिए मेरा नम्र निवेदन है कि मानव-सेवा-संघ के ये सम्मेलन केवल साधकों के सम्मेलन हैं, परस्पर प्रीति की एकता के लिये सम्मेलन हैं, एक-दूसरे के साथ अच्छे ताल्लुक पैदा हो जायें, इस बात के सम्मेलन हैं । आप यहाँ आकर न्यायाधीश न बनें, नेता न बनें, गुरु न बनें । और आपको हमारी बुराई दीखती है, तो हमसे एकान्त में मिलकर कहें कि आपकी बुराई से हमें दुःख होता है ।

आप ईश्वर का काम नहीं कर सकते, आप समाज का काम नहीं कर सकते, आप राष्ट्र का काम नहीं कर सकते । आप अपना काम कर सकते हैं । मानव होने के नाते मानव-मात्र को अपने सम्बन्ध में विचार करने का स्वतन्त्र अधिकार है। दूसरों की सेवा करने में अधिकार है, प्यार करने में अधिकार है, आदर देने में अधिकार है । मेरा तो यह विश्वास है कि जब से दूसरों को समझाने का प्रयास किया गया, बेसमझी फैल गई । आप जानते हैं, बेसमझी कैसे बढ़ती हैं, समझाने के प्रयास से । जिन माता-पिताओं ने अपने बच्चों को प्यार दिया है, आदर दिया है और समझाने का ज्यादा प्रयास किया है, उनके बच्चे माता-पिता के विरुद्ध हो गये। आप समझते होंगे कि हमारे समझाने से दूसरे की बेसमझी मिटती है । परन्तु नहीं, ऐसा नहीं होता । बेसमझी मिटती है तब, जब बेसमझ को प्यार कर सको। तब उसमें चेतना आती है । बेसमझ को यदि आदर दे सको तो उसमें चेतना आती है। बेसमझ को सहयोग दे सको तो उसमें चेतना आती है । एक तो वह बेचारा अपनी बेसमझी से ही दुखी है, फिर तुम ऊपर से अपमान करके उसको और दुःखी बनाते हो । इसका अर्थ यह है कि आप सेवा की बात को जानते ही नहीं, मानने की तो कौन कहे । सच्चा सेवक वही होता है, जो बुरे-से-बुरे व्यक्ति को भी प्यार देने को राजी हो, जो सभी की पीड़ा से पीड़ित होने के लिये राजी हो । उसी को मानव-सेवा-संघ ने सेवक माना है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 75-77)

Friday, 20 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 20 December 2013 
(पौष कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान निर्दोषता में आस्था - 1

मुझे बड़ी व्यथा होती है, जब मैं किसी साधक को इस रूप में, किसी दूसरे की बुराई करते देखता हूँ। वास्तव में बुराई करने वाले को बुरा कहना अथवा उसे बुरा समझना उसके साथ बुराई करने से भी अधिक बुरा है। यह बात मैंने गुरु देव से सुनी थी, बहुत ही पहले बचपन में । महाराज कहने लगे कि जो किसी को बुरा समझता है, वह उससे ज्यादा बुरा है, जो बुराई करता है । उन्होंने कहा कि बुराई करने वाले के जीवन में कभी भी सजगता आ सकती है और वह पश्चात्ताप करके बुराई को छोड़ सकता है; किन्तु जो दूसरे को बुरा समझता है, उसके जीवन में तो मिथ्या अभिमान की ही उत्पत्ति और पुष्टि होती रहती है । इसलिए उसकी विशेष क्षति होती है, जो किसी की बुराई करता है, चाहे वह सच्ची हो । वास्तव में तो दूसरे की क्रियाओं को आप भली-भाँति जान ही नहीं सकते । कर्म के पीछे भाव भी होता है । भाव के पीछे विवेक भी होता है। विवेक के पीछे लक्ष्य भी होता है । अत: कौन भाई-बहिन किस समय में, किस भाव से कह रहे हैं, आप नहीं जानते । मेरा यह विश्वास है और अनुभव है कि आखों देखी बुराई के विषय में भी कोई व्यक्ति सही अर्थ में निर्णय नहीं कर सकता कि उसमें बुराई का अंश कितना है । इसलिए मेरा नम्र निवेदन है कि जो भाई, जो बहिन अपने को साधक मानते हैं, वे इस बात पर विचार करें । देखिये, मानव-सेवा-संघ सिद्धों का संघ नहीं, साधकों का संघ है । साधक उसे नहीं कहते, जिससे कभी भूल न होती हो । भूल तो सबसे होती है; किन्तु जो उसे जानने का प्रयास करता है, उसे मिटाने का प्रयास करता है, उसी को साधक कहते हैं ।

अत: यदि किसी साधक से कभी कोई भूल होती है, तो यह उसका काम है कि वह उसे देख कर, उस पर दुःखी होकर उसे मिटाने का प्रयास करे । यह आपका काम नहीं है कि आप उसकी  भूल की पूरी जानकारी से पूर्व किसी दूसरे से उसकी बुराई करने लगें । अगर आप किसी के हित-चिन्तक हैं और उसकी बुराई आपको नापसन्द आती है, तो बुराई करने वाले से ही कहें कि भाई, तुम ऐसा क्यों करते हो ? ऐसा तुम्हें नहीं करना चाहिए, ऐसा तुमको नहीं सोचना चाहिये । तो मैं मान लेता कि तुम किसी के मित्र भी हो और पराई बुराई से तुम्हारा हृदय करुणित होता है । मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि जो व्यक्ति किसी की बात किसी दूसरे से जाकर कहता है, वह दोनों की ओर से अविश्वासी होकर रहेगा । इसलिये मेरा ऐसा नम्र निवेदन है कि मुझे दुःख है, मैं नहीं चाहता हूँ कि तुम अपनी दृष्टि में भी आदर के योग्य न रहो और जिसके हित-चिन्तक बनकर तुम इस तरह की बात करते हो, उसकी दुष्टि में भी आदर के योग्य न रह जाओ । जिसकी तुम बुराई करते हो, उसके आदर के योग्य रह ही नहीं सकते। इसलिये यदि तुम अपना भला चाहते हो, दूसरों का भला चाहते हो, तो किसी की बुराई किसी के साथ मत करो, कहो मत । तुम्हारे देखते हुये, तुम्हारे सामने किसी ने बुराई की कैसे ? तुममें हिम्मत होनी चाहिये, तुममें ईमानदारी होनी चाहिये, तुममें साहस होना चाहिये, बुराई करने वाले से तुम्हें प्रीतिपूर्वक कहना चाहिये - आप ऐसा क्यों सोचते हैं ? आप भी हमारे हैं, वे भी हमारे हैं । आप ऐसा कभी न सोचें । आप यदि ऐसा करते हैं, तो आप देखेंगे कि आपको दोनों पक्षों से आदर मिलेगा, और आपका स्वयं का भला होगा भाई मेरे !


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 74-75)

Thursday, 19 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 19 December 2013 
(पौष कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

वर्तमान निर्दोषता में 
आस्था - 1

मानव होने के नाते हम सब साधक हैं । साधक उसे नहीं कहते, जो अपनी ओर नहीं देखता। साधक का सर्वप्रथम पुरुषार्थ है कि वह स्वयं अपने सम्बन्ध में विचार करे । मुझे जब-जब दूसरों का चिन्तन हुआ है, तब-तब मैं अपनी बात भूलता रहा हूँ और उसका बहुत भयंकर परिणाम मुझे भोगना पड़ा है ।

इसलिए भाई, दूसरे लोग हमारे साथ क्या करते हैं ? ऐसा सोचना सजग मानव के जीवन का प्रश्न नहीं है, यह सावधान भाई-बहिनों का प्रश्न नहीं है । जैसे वे हैं, वैसा ही वे करते हैं । यदि कोई भाई-बहिन हमारे साथ भलाई करते हैं, तो उसका अर्थ यह है कि वे भले हैं । यदि वे हमारे साथ भलाई नहीं करते, तो भाई, इसमें बुरा मानने की बात नहीं है; क्योंकि यदि कोई हमारे साथ भलाई न करे, तो उसमें उसकी कोई बुराई तो है नहीं; किन्तु यदि कोई हमारे साथ बुराई करता है, तब भी क्षोभित होने की बात नहीं है । क्यों नहीं है ? क्योंकि जिसने अपने साथ बुराई नहीं की है, वह हमारे साथ बुराई कर ही नहीं सकता । यह कर्म-विज्ञान का दार्शनिक सत्य है । यदि हमारे साथ कोई बुराई करता है, तो उसका अर्थ यही है कि उसने अपने साथ बुराई की है ।

अब हमें अपने को बुरा नहीं बनाना है, इस कारण हम बुराई के बदले बुराई नहीं करेंगे । अपितु भलाई करने का प्रयास करेंगे भले होकर । भले होने का सहज, सुगम, सुलभ, उपाय क्या है ? वह यह है कि हम अपनी वर्तमान निर्दोषता में अविचल आस्था करें । यह ऐसा दार्शनिक उपाय है, वैज्ञानिक उपाय है, अनुभव-सिद्ध उपाय है कि हम वैसे ही भले हो जाते हैं, जैसे कि बुराई की उत्पत्ति से पूर्व थे । क्योंकि हमने भूतकाल की बुराई का परित्याग कर दिया । इससे वर्तमान की निर्दोषता सुरक्षित रहेगी । जब हमारी वर्तमान निर्दोषता सुरक्षित होगी, तब हमारे द्वारा बुराई होगी ही नहीं । इस बात पर विचारशील साधक गम्भीरतापूर्वक विचार करें, अर्थात् जिसे हम बुरा समझते हैं कि उसने हमारे साथ बुराई की है, तो भाई, उसने बुराई हमारे साथ नहीं की, उसने अपने ही को बुरा बना लिया है । यद्यपि बुराई करने से पूर्व वह भला है, और बुराई करने के अन्त में भी वह भला है । बुराई तो बीच में हमारी भूल से उत्पन्न हुई और उसका नाश होगा । किन्तु हम अपने प्रति होने वाली बुराई के आधार पर जब दूसरे को बुरा समझने लगते हैं, तब दूसरा कैसा है, इसे तो वह जाने, पर हम स्वयं तो बुरे हो ही जाते हैं । उसी का परिणाम यह होता है कि जिस हृदय में प्रेम की गंगा लहरानी चाहिये, उसमें द्वेष की अग्नि जलने लगती है, भेद और भिन्नता उत्पन्न हो जाती है, जो किसी के लिए कभी भी अभीष्ट और हितकर नहीं है । अब आप विचार करें कि इस तरह हमने कितनी अपनी क्षति की, कितना अपने को बुरा बनाया !


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 72-74)

Wednesday, 18 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 18 December 2013 
(पौष कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
जानने, मानने तथा करने का स्वरूप-विवेचन - 3

अगर आप यह सोच लेते, एक क्षण के लिये यह अनुभव कर लेते, और आप इसे भली-भाँति जानते भी हैं कि हमारा शरीर हमारे साथ नहीं रहेगा । आप जानते हैं कि हमारे साथी सुषुप्ति में नहीं होंगे । हम जानते हैं कि हमारा सामान सुषुप्ति में हमारे साथ नहीं होगा, और हम फिर भी होंगे । बे-सामान के भी हम होंगे, बिना साथियों के भी हम होंगे । और यह भी सोचिये कि जब हम बिना सामान और बिना साथियों के होते हैं, तब क्या दुःखी होते हैं ? क्या अभाव से पीड़ित होते हैं ? क्या पराधीन होते हैं ? मानना पड़ेगा कि नहीं । दुखी तो नहीं होते । लेकिन यह नहीं जानते कि कैसे होते हैं । बिलकुल ठीक कहते हैं; किन्तु आप जान सकते हैं । आप पूछें, कैसे जान सकते हैं ? तो उत्तर होगा दिन जाग्रत में, किसी भी कार्य के प्रारम्भ से पूर्व आप शान्त होने का स्वभाव बनायें, कार्य के आरम्भ से पूर्व और कार्य करते समय इस बात पर विचार करें कि हम वह नहीं करेंगे, जो नहीं करना चाहिये । और उस कार्य को संकल्प के रूप में, कामना के रूप में जमा नहीं रखेंगे, जिसे नहीं कर सकते । इन तीनों बातों पर ध्यान रखें । कार्य से पूर्व शान्त हो जायँ। कार्य वह करें, जो करना चाहिये और जिसे कर सकते हैं । वह न करें, जो नहीं करना चाहिये, और जिसे कर नहीं सकते । परिणाम में आपको शान्ति प्राप्त होगी। शान्ति का सम्पादन होते ही आपका प्रवेश, आपके न चाहने पर भी, बिना किसी श्रम के, उस जीवन में होगा, जिसमें कोई और नहीं है, कोई गैर नहीं है। जहाँ कोई और नहीं है, वहाँ निर्भयता है । जहाँ कोई गैर नहीं है, वहाँ परम प्रेम की अभिव्यक्ति है । वह जीवन आपका जीवन है । और वह आपको प्राप्त है, अप्राप्त नहीं है, मिला है । केवल आप उसको भूल गये हैं । आप उससे दूर नहीं हुए, आप उससे अलग नहीं हुए, आप उससे विभाजित नहीं हुए । वह जीवन आपका है, सदैव आपका है, सदैव आपका रहेगा ।

परन्तु मेरे भाई ! सामान की दासता ने, साथियो की ममता ने, परस्पर के संघर्ष ने ही हमें आज अपने वास्तविक जीवन से विमुख कर दिया है । हम इस वास्तविक जीवन को भूल गये हैं । इसलिए मेरा नम्र निवेदन है कि आप मानव हैं, आपके जीवन का बड़ा महत्त्व है । आपसे सभी का महत्त्व है, आपका किसी और से महत्त्व नहीं है । जरा सोचिये तो सही, भक्तों ने भगवान के महत्त्व को प्रकाशित किया, कि भगवान् ने स्वयं अपने महत्त्व को प्रकाशित किया ? क्या राय है आपकी ? - भक्तों ने । भक्त मानव है या भगवान ? जरा विचार करो, कितना महत्त्व है आपका ? अच्छा भैया, बताओ तो सही, जिज्ञासा-पूर्ति मानव की हुई या देवताओं की ? - मानव की । सन्देह-निवृति किसकी हुई ? कर्त्तव्य-परायणता किसमें आई ? - मानव में । कर्त्तव्य-परायणता से जीवन जगत् के लिये उपयोगी हुआ कि नहीं ? हुआ । सन्देह-निवृत्ति से जीवन अपने लिये उपयोगी हुआ कि नहीं ? हुआ । अच्छा, भक्त होने से जीवन भगवान् के लिये उपयोगी हुआ कि नहीं ? हुआ । यह आपका अपना महत्त्व है, कि नहीं है ? किन्तु हमने यह सोचा ही नहीं कि जो हमारे बिना रह सकता है, हम उसके बिना क्यों नहीं रह सकते । जरा विचार तो कीजिये, सोचिये तो सही, कि जो हमारे बिना रह सकता है, हम उसके बिना क्यों नहीं रह सकते ? रह सकते हैं । जब रह सकते हैं, तब क्या कामना का स्थान रह गया ? ममता का स्थान रह गया ? फिर ममता और कामना से रहित होने में क्या आप पराधीन हैं ? क्या असमर्थ हैं ? कदापि नहीं। किन्तु आप विचार ही नहीं करते कि हमारे जीवन का क्या महत्त्व है । इसलिये आप सोने से पहले और जागने के बाद, कार्य के आरम्भ और अन्त में अपने सम्बन्ध में विचार करना आरम्भ कर दें और अपने अनुभव के आधार पर विचार करें । आप जानते ही हैं कि 24 घंटों में कुछ समय ऐसा भी होता है, जब हम बे-साथी और बे-सामान के होते है । तो भाई, उस समय क्या आप दुःख का अनुभव करते हैं ? बोले, नहीं । किन्तु क्या बतायें, यह जड़ता के आधार पर होता है। मानव-सेवा-संघ ने कहा - नहीं भाई, जाग्रत अवस्था में कार्य के आरम्भ से पूर्व, कार्य के अन्त में यदि आप शान्त हो जायँ, तो वही जीवन, जो सुषुप्ति में आपने अनुभव किया था, जाग्रत में प्राप्त होगा और उसी जीवन से आप अपने लिये, जगत् के लिये, जगत्पति के लिये उपयोगी होंगे - यह निर्विवाद सिद्ध है ।


 - ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 70-72)