Sunday 29 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 29 December 2013 
(पौष कृष्ण द्वादशी, वि.सं.-२०७०, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
व्यर्थ-चिन्तन का स्वरूप और माँग की पूर्ति – 1

आज एक प्रथा चल पड़ी है - कब से चली है, यह तो मैं नहीं कह सकता । किन्तु प्रथा है अवश्य। उसे अनादि तो मैं नहीं कह सकता; किन्तु ऐसी प्रथा है, कि जब कोई व्यर्थ-चिन्तन उत्पन्न हो जाय, तब बलपूर्वक आप किसी अन्य चिन्तन को करना आरम्भ कर दे । ऐसा प्राय: हम सभी ने किया है, और बहुत से लोग करते भी हैं। परन्तु बलपूर्वक किये हुए इस चिन्तन का भी प्रभाव अंकित होता जाता है, और जो किया हुआ है, उसका भी चिन्तन होता रहता है । हम अपना मनोनीत रुचिकर चिन्तन करते रहते हैं और किये हुए का चिन्तन अपने आप होता रहता है। इस स्थिति में हम अपने में एक मिथ्या अभिमान और लाद लेते हैं कि हमने इतनी देर बैठकर जप किया, ध्यान किया, पाठ किया । और जब दो साधक आपस में दिल खोलकर मिलते हैं, तब आपस में यही कहते हैं - क्या बतायें, अभी हमारा मन शान्त नहीं हुआ, शुद्ध नहीं हुआ, स्वस्थ नहीं हुआ । एक ओर बलपूर्वक किये हुए चिन्तन का अभिमान, दूसरी ओर व्यर्थ-चिन्तन होने की व्यथा । इस द्वन्द्वात्मक स्थिति से, मेरे जानते, सभी साधक परिचित हैं । ऐसा करते-करते आयु का बहुत बड़ा भाग बीत गया । परन्तु  रोग की निवृत्ति नहीं हुई ।

इस व्यथा से जब कोई साधक पीड़ित हुआ, तब 'उसने' जिसे हम नहीं जानते हैं, जो हमें जानता है, जो सदैव रहेगा, तब भी जब 'यह' नहीं रहेगा, उसने जो इसका आश्रय है, प्रकाशक है - उसको प्रकाश दिया । और प्रकाश यह दिया कि भाई, तुम यह जानते हो कि तुम कर नहीं रहे हो, हो रहा है, चाहते नहीं हो, फिर भी हो रहा है, और तुम उसे देख रहे हो, वह तुम्हारा दृश्य है । और तुम यह भी जानते हो कि कोई दृश्य ऐसा नहीं है, जिसमें सतत परिवर्तन न हो, जिसका विनाश न हो, जिसका अन्त न हो । जब तुम यह जानते हो, तो सतत परिवर्तन होने वाले दृश्य से इतने भयभीत क्यों होते हो ? मेरे अपने मित्र, साथी ! तु अभय हो जा । भय मत कर । उससे तादात्म्य मत जोड़, उसका सुख मत ले । जिससे आप तादात्म्य तोड़ देते हैं, जिससे आप भयभीत नहीं होते हैं, जिससे आप सुख नहीं लेते हैं, वह अपने आप सदा के लिये आपसे अलग हो जायगा । और तुम बिना ही प्रयत्न के स्वत: उस अचिन्त दशा को प्राप्त करोगे, जो तुम्हारी माँग है। किन्तु मेरे प्यारे ! जब अचिन्तता तुम्हारे मन में आ जाय, तब उसे अपना आश्रय मत बनाना, उसको अपनी खुराक मत बनाना, उससे भी तादात्म्य मत जोड़ लेना। तब, अपने आप उसकी स्मृति जागेगी, जो वास्तव में सदैव आपका अपना है । प्रिय की स्मृति अन्य की विस्मृति कराने में समर्थ है । अन्य की विस्मृति दूरी और भेद मिटाने में हेतु है । दूरी के नाश में ही योग की अभिव्यक्ति, भेद के नाश में ही बोध की अभिव्यक्ति और भिन्नता के नाश में ही प्रेम की अभिव्यक्ति होती है। इस दृष्टि से प्रत्येक भाई, प्रत्येक बहिन बड़ी ही सुगमतापूर्वक योग, बोध और प्रेम से अभिन्न हो, कृतकृत्य हो सकते हैं । यह है उस अनन्त का दिया हुआ प्रकाश। जिसका यह प्रकाश है, वह उसका भी है, जो उसे मानता है और उसका भी है, जो उसे नहीं मानता । उसके न मानने पर भी वह उतना ही आपका है, जितना उसका है, जो उसे मानता है । अथवा जितना वह अपना है, उतना ही आपका है उस समय भी, जब उसे नहीं मानते । ऐसे उदार ने मानव का निर्माण किया है ।


 - ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 87-89)