Saturday, 28 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 28 December 2013 
(पौष कृष्ण दशमीं, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
व्यर्थ-चिन्तन का स्वरूप और माँग की पूर्ति – 1

साधकगण गम्भीरता से विचार करें । आपके द्वारा किये हुए कृत्य का परिणाम कोई दूसरा भोगे और उस पर आप आरोप लगावें तो इसमें आपकी बड़ी भारी भूल है। उस भूल को सामने रखकर जब मैं विचार करता हूँ तो मुझे तो स्पष्ट मालूम होता है कि जिसे लोग मन की चंचलता के नाम से कहते हैं, वह एक वर्तमान वस्तुस्थिति है और इसी का नाम व्यर्थ-चिन्तन है । किन्तु जब आप अपनी ओर देखेंगे, तो उस व्यर्थ-चिन्तन के साथ-साथ आपके जीवन में जो आपकी वास्तविक माँग है, उसकी स्मृति भी मौजूद है । परन्तु यह स्मृति बहुत शिथिल है, और व्यर्थ-चिन्तन बहुत सबल है । इस भयंकर परिस्थिति में हमें क्या करना चाहिये ? यही आज का मूल प्रस्तावित विषय है ।

महानुभाव ! धीरजपूर्वक विचार करें । जिस समय आप अपने व्यक्तित्व में अपनी बुद्धि-दृष्टि के द्वारा किये हुए का चिन्तन पाते हैं, उस समय आप यह भी जानते हैं कि यह चिन्तन हमारे न चाहने पर भी हो रहा है । हम नहीं चाहते थे कि किये हुए की पुनरावृत्ति जीवन में हो; किन्तु हमारे न चाहने पर भी ऐसा हो रहा है । यह आप सभी भाई-बहिन जानते हैं । दूसरी बात यह है कि हम कर नहीं रहे हैं, वह स्वत: हो रहा है । इतना ही नहीं, हम चाहते तो हैं कि चिन्तन न हो, किन्तु हमारे न चाहने पर भी, न करने पर भी चिन्तन दिखाई देता है । यह क्या है? यह वही बात है, जैसे निर्मल दर्पण में आप अपना चित्र देखते हैं । मन रूपी निर्मल दर्पण में आप अपने पूर्व कृत्य के चित्र को देखते हैं । अथवा भविष्य में जो करना चाहते हैं, उसको देखते हैं । तात्पर्य यह है कि जो कार्य जमा है, उसे देखते हैं, जो कर चुके हैं, उसे देखते हैं । और ऐसा जो आप देखते हैं, वह आपको अच्छा क्यों नहीं लगता ? वह इसलिये अच्छा नहीं लगता कि जो कर चुके हैं, उसके परिणाम से आप परिचित हैं । उसका परिणाम क्या है ? न वह वस्तु है, न वह परिस्थिति है, न वह अवस्था है, जिसमें उसका चिन्तन किया गया । केवल उसका चिन्तन मात्र है । और चिन्तन आपके जीवन में उस स्मृति को ढक लेता है, जो किसी की प्रियता है, जो किसी का बोध है, जो किसी का योग है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 86-87)