Friday 27 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 27 December 2013 
(पौष कृष्ण नवमीं, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

व्यर्थ-चिन्तन का स्वरूप और माँग की पूर्ति – 1

उपस्थित महानुभाव तथा भाई और बहिन ! हम सब मानव होने के नाते साधक हैं । साधक उसको कहते हैं जिसका कोई साध्य है, जिसकी कोई माँग है और जिस पर कोई दायित्व है । अब विचार यह करना है कि हमारी जो माँग है क्या हमें उसका भलीभाँति अनुभव है ? यदि अनुभव है, तो माँग की जाग्रति में ही काम की निवृत्ति होती है, अर्थात माँग की जागृति से मानव अकाम हो जाता है, अपनी आवश्यकता का अनुभव करने पर। आवश्यकता का अनुभव कब होता है ? जब हम अपनी वर्तमान वस्तु-स्थिति से परिचित होते हैं, और वर्तमान वस्तुस्थिति से परिचित कब होते हैं ? जब कार्य के आदि और अन्त में हम शान्त रहने का स्वभाव बनाते हैं । जब तक हम आवश्यक कार्य को पूरा करके और अनावश्यक कार्य का त्याग करके शान्त नहीं हो जाते, तब तक हमें अपनी वस्तु-स्थिति का यथेष्ट परिचय नहीं होता । और जब हम अपनी वस्तु-स्थिति से ही अपरिचित रहते हैं, तब हमारी माँग क्या है, हम पर दायित्व क्या है, यह प्रश्न जीवन का प्रश्न नहीं होता, वर्तमान का प्रश्न नहीं होता।

आप सभी भाई-बहिनों को इस बात का अनुभव होगा कि जब आप थोड़ी देर के लिये भी श्रमरहित होते हैं, अहंकृति-रहित होते हैं, तब अपनी वर्तमान वस्तुस्थिति में आगे-पीछे का चिन्तन पाते हैं । आगे-पीछे के चिन्तन का अर्थ क्या है ? उसका अर्थ है, जो कर चुके हैं, उसका चिन्तन, अथवा जो करना चाहते हैं, उसका चिन्तन ।

गम्भीरता से विचार करें । जो कर चुके हैं वह स्वरूप से विहीन है और जो करना चाहते हैं, वह भी वर्तमान में उपस्थित नहीं है । इससे यही सिद्ध हुआ न, कि व्यर्थ-चिन्तन के रूप में जिस वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति, अवस्था आदि का चिन्तन हो रहा है, वह वर्तमान में नहीं है, अर्थात 'नहीं' का चिन्तन ही व्यर्थ-चिन्तन है । इस दशा को ही कुछ लोग अपनी भाषा में कहते हैं - मन की चंचलता । मन की चंचलता कहो, अथवा व्यर्थ-चिन्तन कहो, यह एक दशा है। और दशा के मूल में भूल यह है कि जो वर्तमान में नहीं है, उसका जब चिन्तन होता है, तब हम उस होने वाले चिन्तन के प्रभाव से या तो भयभीत हो जाते हैं या उसका सुख लेने लगते हैं । इतना ही नहीं, उससे इतने तद्रूप हो जाते हैं और कहने लगते हैं - क्या बतायें, हमारा मन बड़ा खराब है, वह इधर-उधर की बातें सोचता है । परन्तु यहाँ पर गम्भीरता से विचार करना है कि मन क्या कोई स्वतन्त्र कर्त्ता है ? कोई लेखक कहे कि कलम बहुत खराब है, हम नहीं चाहते, पर वह अपने आप लिखने लगती है । यदि ऐसा कोई लेखक कहे, तो आप क्या निर्णय देंगे ? यही न कहेंगे, मालूम होता है, उसका मस्तिष्क ठीक नहीं है । क्योंकि कलम तो लिखने का साधन है, करण है । क्या कलम लेखक है ? लेखक स्वयं लिखता है, और कहता है, कलम लिखती है । इसी प्रकार अपने किये हुए का प्रभाव अपने में अंकित है, अथवा जो हम करना चाहते हैं, उसका प्रभाव अपने में अंकित है । और जब वह प्राकृतिक नियम के अनुसार हमारे न चाहने पर भी विश्राम काल में उत्पन्न होता है, तब हम अपने उस प्रभाव को मन की चंचलता के नाम से कहने लगते हैं । इतना ही नहीं, बड़े-बड़े धुरन्धर लोगों ने मन की बड़ी घोर निन्दा की है । किन्तु मन यदि हमारी तरह बात करता होता, उसका स्वतन्त्र व्यक्तित्व होता, तो मेरे जानते, वह आपको ऐसी बात नहीं करने देता । परन्तु वह तो बेचारा कर्त्ता है नहीं, कर्त्ता तो आप हैं । इसलिये आप मनमाने ढंग से अपने ही मन की, अपने ही द्वारा निन्दा करते रहते हैं, और उस कृत्य को आप अपनी समझदारी समझते हैं । सोचते हैं, हम बड़े अच्छे आदमी हैं, हम अपने मन की बुराई कर सकते हैं, और हम मन के दोषों को जानते हैं ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 84-86)