Thursday, 26 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 26 December 2013 
(पौष कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान निर्दोषता में आस्था - 2

आप जानते हैं, दिखाई वह चीज देती है, जो दूर हो । जो चीज दूर होती है, वही दिखाई देती है । जो भिन्न होती है, वह भासित होती है। अगर किसी को अपने में ईमानदारी दिखाई देती है, तो कम से कम वह उससे दूर जरूर है; अगर भासित होती है, तो भिन्न जरूर है । जो चीज अभिन्न हो जाती है, जो चीज प्राप्त हो जाती है, वह न दिखाई देती है, न उसका भास होता है। इसलिये मेरे भाई, अगर हमें अपना दोष दिखाई देता है, तो हम उससे अलग जरूर हैं, भिन्न जरूर हैं । तो देखना किसको है ? अपने दोष को, पर हम देखते क्या हैं ? पराये को, पराये दोष को और पराये को देखते ही हम दोषी हो जाते हैं और अपने दोष को देखते ही निर्दोषता की ओर अग्रसर होते हैं । अब आप सोचिये, पर-दोष दर्शन में क्या लाभ है और निज दोष-दर्शन में क्या लाभ है? आपको मानना ही पड़ेगा कि पर-दोष-दर्शन के समान अपनी कोई क्षति नहीं है और निज-दोष-दर्शन के समान अपना कोई लाभ नहीं है । इस दृष्टि से जब हम लोग अपने-अपने सम्बन्ध में विचार करेंगे, तब बड़ी ही सुगमतापूर्वक जो मानव-जीवन का चरम लक्ष्य है, जो मानव-जीवन की महिमा है कि हम अपने लिए, जगत् के लिए, प्रभु के लिए उपयोगी हो सकते हैं, वह प्रत्यक्ष हो जायगी । इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं है ।

आप जानते हैं ? आज यदि कोई यह कहे कि हम भूतकाल के आधार पर किसी निर्दोष को अपना मित्र बनाना चाहते हैं, तो उसे निराश होना पड़ेगा। भगवान् यदि यह विधान बनायें कि हमें ऐसा भक्त चाहिए, जिसका भूतकाल सर्वांश में निर्दोष रहा हो, तो भगवान को अकेला ही रहना पड़ेगा । परन्तु आप जानते हैं, कि प्रभु पतित-पावन हैं । इसका मतलब क्या यह नहीं हुआ कि हम पतित से दोस्ती कर सकते हैं, पतित के साथ सम्बन्ध जोड़ सकते हैं ? परन्तु कब? जब वर्तमान निर्दोषता में आस्था रखे, तब । देखिये, न्याय का अर्थ क्या है? न्याय का अर्थ है अपने अपराध से परिचित होना । न्याय का यह पहला अंग है। दूसरा अंग है, उससे पीड़ित होना । उसका तीसरा अंग है, अपराध को न दोहराने का निर्णय करना । यह हुआ न्याय । इसका फल है, निर्दोषता के साथ अभिन्नता। उसका फल है, जीवन का उपयोगी सिद्ध होना । इस प्रकार का न्याय प्रत्येक भाई, प्रत्येक बहिन अपने साथ कर सकने में समर्थ हैं । अपने प्रति किया हुआ न्याय अपने को निर्दोषता से अभिन्न करता है और आप जानते हैं, कि निर्दोष जीवन में ही आवश्यक सामर्थ्य की अभिव्यक्ति होती है, निर्दोष जीवन में ही निस्न्देहता के लिए विचार का उदय होता है और निर्दोष जीवन में ही प्रेम का प्रादुर्भाव होता है ।

इस दृष्टि से यह निर्विवाद है कि सर्वतोमुखी विकास एक मात्र निर्दोष जीवन में ही निहित है और उसका उपाय है - की हुई भूल को न दोहराना, जानी हुई बुराई को न करना, अपने दोषों को देखना और निर्दोषता की स्थापना कर निश्चिन्त तथा निर्भय हो जाना । यही अचूक उपाय है अपने को सफल बनाने का। यदि आपको यह उपाय जँचे, रुचे तो आप उसको अपनायें और उसको अपनाकर मानव-जीवन के महत्त्व को अनुभव करें । अपने को अपने लिए, जगत् के लिये, प्रभु के लिये उपयोगी बनाकर कृतकृत्य हो जायँ, यही मेरी सद्भावना है।


 - ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 82-84)