Sunday 22 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 22 December 2013 
(पौष कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०७०, रविवार)

वर्तमान निर्दोषता में आस्था - 2

हम सब साधक हैं । साधक होने के नाते हम सबको अपने-अपने सम्बन्ध में विचार करना है । आप कहेंगे, कैसे विचार करें ? इस सम्बन्ध में मेरा यह निवेदन है कि भाई, अगर आप ईश्वरवादी हैं, ईश्वर-विश्वास आपके जीवन में है, तो अपने से पूछें कि ईश्वर से अच्छी भी क्या कोई चीज है? अगर ईश्वरवादी की दृष्टि में ईश्वर से अच्छी भी कोई चीज है, तब तो वह यह कह सकता है कि मुझे ईश्वर प्यारा नहीं लगता, उसमें मेरा मन नहीं लगता । किन्तु यदि वह मानता है कि ईश्वरवादी के लिये ईश्वर सबसे अच्छा है और एक ही है, और फिर भी वह यह कहता है कि मेरा प्रभु में मन नहीं लगता, तब यह बात कहाँ तक तर्कयुक्त है ? भाई, क्या सबसे अच्छी चीज में आपका मन नहीं लगेगा? मानव-सेवा-संघ इस प्रकार का सुझाव ईश्वरवादी को देगा कि भाई, देखो, यदि तुम ईश्वर को मानते हो, तो क्या यह मानते हो कि उससे अच्छी और भी कोई चीज है ? उससे अच्छी यदि और कोई चीज है, तो फिर ईश्वर कैसा ? और यदि तुम ईश्वर को मानते हो, तो क्या वह तुम्हारा अपना नहीं है ? अब आप स्वयं विचार करें ! सबसे अच्छा हो, अपना हो, फिर भी प्यारा न लगे और प्यारा लगे, तब भी उसमें मन न लगे, क्या यह सम्भव है ? यह कभी सम्भव नहीं है । अब आप विचार करें, आपका ईश्वरवाद आपके लिये उपयोगी है ।

यदि आप कहें कि नहीं-नहीं, हम तो अध्यात्मवादी हैं । अच्छा भाई, अध्यात्मवाद की दृष्टि से 'अपने' से सुन्दर कोई चीज है क्या ? किसी भी अध्यात्मवादी से पूछिये । किसी अध्यात्मवादी ने 'यह' के सम्बन्ध में ऐसा विचार नहीं किया है । 'यह' के सम्बन्ध में यह राय कायम नहीं की । सभी अध्यात्मवादियों ने 'यह' को 'अपने' से निम्न कोटि का ही स्वीकार किया है । मेरे जानते, तो किसी अध्यात्मवादी ने यह स्वीकार नहीं किया कि आत्मा से शरीर अधिक महत्त्व की वस्तु है, आत्मा से जगत अधिक महत्त्व की वस्तु है । ऐसा मेरे जानते, किसी अध्यात्मवादी ने नहीं कहा । जब नहीं कहा, तब आप अपने में संतुष्ट क्यों नहीं होते ? यदि आप अपने में संतुष्ट नहीं हैं, तो आपका जीवन तो यही सिद्ध करता है कि आप अध्यात्मवादी नहीं हैं । यदि मैं अपने में सन्तुष्ट नहीं हूँ तो मेरा जीवन तो यही सिद्ध करेगा कि मैं अध्यात्मवादी नहीं हूँ । फिर भी कथन करें आप अध्यात्मवाद का, तो इससे कोई लाभ होने वाला नहीं है। इसलिये मेरे भाई, अगर आप अध्यात्मवादी हैं, आपने अपनी सत्ता को स्वीकार किया है, तो अपने में आपकी अपनी रति होनी चाहिये । आप अपने में अपने को सन्तुष्ट रख सकें, तब न आपका अध्यात्मवाद सिद्ध होगा, तब न हमारा अध्यात्मवाद सिद्ध होगा । इसलिये मेरा निवेदन है कि अपने सम्बन्ध में विचार करना तभी सार्थक होगा कि जैसा आप मानते हैं, वैसे आप अभी, अभी, अभी हो जायँ ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 77-78)