Monday 23 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 23 December 2013 
(पौष कृष्ण षष्ठी, वि.सं.-२०७०, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान निर्दोषता में आस्था - 2

यदि कोई कहे, नहीं-नहीं, हम तो भौतिकवादी हैं । तो भैया, सोचो, अगर तुम भौतिकवादी हो, तो विचार करो कि भौतिकवादी का अर्थ क्या है? अगर तुम्हारी मान्यता में जगत् है, तो फिर कोई भी वस्तु तुम्हारी है या जगत् की ? आप विचार करें । अगर जगत् की स्वीकृति है, तो आपके पास जो कुछ है, वह जगत् का है । निर्मम होकर यदि विश्व-प्रेम से आपका जीवन परिपूर्ण नहीं है, तो फिर कैसा भौतिकवाद ? आत्मरति से भी जब आपका अपना जीवन परिपूर्ण नहीं है, तो कैसा अध्यात्मवाद ? प्रभु-प्रेम से यदि आपका जीवन परिपूर्ण नहीं है, तो कैसा ईश्वरवाद ? विचार करें, और गम्भीरता से विचार करें । इस प्रकार विचार करना ही मानव-सेवा-संघ की सत्संग-योजना है ।

परन्तु कितने दुःख की बात है कि हम अपनी ओर देखते ही नहीं और देखते भी हैं, तो इस विचार के साथ कि किस अंश में उन्होंने मेरे साथ वह किया, जो उन्हें मेरे साथ नहीं करना चाहिये था । मान लो, किसी ने वैसा नहीं किया; किन्तु यह भी तो सोचो कि तुम्हें उसके साथ क्या करना चाहिए । हमें तो उसके साथ वही करना है कि जो करना चाहिये । यदि आप ऐसा करते हैं, तो मैं आपसे पूछता हूँ कि फिर दुबारा क्या कोई आपके साथ बुराई करने का साहस कर सकता है ? मेरे जानते तो नहीं कर सकता । किन्तु अनेक बार हमारे ऊपर जो दूसरों के द्वारा आक्रमण होते हैं, दूसरों के आक्षेप होते हैं, दूसरों की आलोचनायें होती हैं, वे क्यों ? स्पष्ट है कि हम वह नहीं करते, जो हमें उनके साथ करना चाहिये । परिणाम यह होता है कि हमारे साथ वह होता रहता है, जो दूसरों को नहीं करना चाहिये । मैं जानना चाहूँगा कि यह रोग कब तक रखना है ? कब तक हम यह सोचते रहेंगे कि हमको दूसरों ने आदर नहीं दिया, प्यार नहीं दिया, हमारी ईमानदारी में विश्वास नहीं किया, हमको अच्छा आदमी नहीं समझा। इस बेबसी के जीवन से क्या शान्ति मिलेगी ? भाई, मेरा तो विश्वास है कि सारी दुनियाँ मुझे चाहे जैसा समझे, पर मैं वैसा रहूँ जैसा रहना चाहिये । यही उपाय है अनादर की पीड़ा से, अपमान की पीड़ा से बचने का । किन्तु हम आज दूसरों के सर्टीफिकेट पर अपने को शान्त रखना चाहते हैं, दूसरों की उदारता पर आज हम जीना चाहते है । मेरा विचार है कि यह मानव-जीवन का घोर अपमान है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 78-79)