Tuesday, 24 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 24 December 2013 
(पौष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान निर्दोषता में आस्था - 2

आप मानव है, आपकी बड़ी महिमा है, आपका बड़ा महत्त्व है आप बड़े सुन्दर हैं । परन्तु मेरे भाई, वह कौनसी घड़ी होगी, जब आपके लिये पराधीनता की वेदना असह्य होगी, जब आप पराधीनतापूर्वक रहना सहन न कर सकें ? पराधीनता इस बात में नहीं है कि मैं भूखा हूँ, मुझे भोजन नहीं मिलता । ऐसी पराधीनता पराधीनता नहीं है । निर्णय कर लो, प्यारे भोजन! यदि तुम्हारे बिना शरीर नाश हो सकता है, तो तुम भी मेरे बिना सड़ सकते हो! तब फिर पराधीनता क्या है ? यदि हमारा जीवन किसी की उदारता पर जीवित रहा, तो वह जीवन नहीं है । दुखी से दुखी मानव भी उतना ही बड़ा मानव है, जितना अपने को सुखी से सुखी मानव मानता है । क्यों ? इसलिये नहीं कि वह अमुक परिस्थिति में है, वरन् इसलिये कि वह मानव है । इसलिये मेरे भाई, अगर कोई सुख में उदार नहीं है, तो हम दुखियों को तो दुःख में विरक्त होना चाहिए । विरक्ति का अर्थ क्रोध नहीं है, विरक्ति का अर्थ क्षोभ नहीं है, विरक्ति का अर्थ विद्रोह नहीं है । विरक्ति का अर्थ है - असंग हो जाना, निरपेक्ष हो जाना, अनपेक्ष हो जाना । तो, मेरा निवेदन है - अगर सुखी उदारता के बिना भी रह सकता है, तो दुःखियों को तो विरक्ति के बिना नहीं रहना चाहिये । जब दुखी विरक्ति को अपनायेंगे, तब सुखी की उदारता आपके पीछे-पीछे दौड़ेगी; किन्तु इसे अपना महत्व मत मान लेना । यह मत मान लेना कि यह मेरा महत्त्व है कि मेरे पीछे बहुजन चलता है, मेरे पीछे आदर चलता है, मुझे मान-पत्र मिलते हैं, मुझे ऊँचा स्थान मिलता है । यही महत्ता, यही प्रमाद आपको फिर पराधीन बना देगा ।

इसलिये भाई, दूसरे लोग मुझे कैसा मानते हैं, यह तो वे जानें ! पर मैं तो आपसे कह सकता हूँ कि मुझे लोग जितना अच्छा कहते हैं, उससे मैं कम अच्छा हूँ और लोग मुझे जितना बुरा समझते हैं, उससे अधिक बुरा हूँ । कहो तो लिख कर दे दूँ । अगर आपको इसी में सन्तोष है कि हमारी बुराई सारा संसार जान ले, तो मैं भरी सभा में कहता हूँ कि आप लोग जितना मुझको बुरा समझते हैं, उससे मैं अधिक बुरा हूँ और जितना आप लोग अच्छा समझते हैं, उससे कम अच्छा हूँ। अब देखिये, इसमें मेरा क्या बिगड़ गया ? बताओ जरा ! क्या मैं उस जीवन को पसन्द करूँगा, जो आपकी उदारता पर टिका हो ? नहीं-नहीं, कोई विचारशील मानव उस जीवन को पसन्द नहीं करेगा । इसलिये मेरे भाई, इस भ्रमात्मक धारणा को जीवन से निकाल दो कि लोग हमें कैसा समझते हैं, लोग हमें क्या समझते हैं । अब कोई मुझसे पूछे कि इस सम्बन्ध में मेरा विचार क्या है ? तो मैं कहूँगा कि मेरा यह विचार है, यह अनुभव है कि संसार इतना सुन्दर है कि वह मुझको ही नहीं, सभी के सम्बन्ध में उसकी यह उदार मान्यता है कि वह सभी को जितने वे अच्छे होते हैं, उससे अधिक अच्छा समझता है और जितने बुरे होते हैं, उससे कम बुरा समझता है । क्यों, ऐसा क्यों है ? तो कहना होगा कि यह इसलिये ऐसा है कि संसार ने हमें 'गैर' नहीं माना, संसार ने हमें 'और' नहीं कहा। माँ अपने बच्चों के दोषों को न देख कर गुणों को ही देखती है और दोषों को देखकर स्वयं दुःखी होती है, स्वयं व्यथित होती है, क्षोभित नहीं होती । तो जिस प्रकृति की गोद में हम पले हैं, उसका यह स्वभाव है कि संसार किसी का ऋणी नहीं रहता, प्रभु किसी के ऋणी नहीं रहते, कर्त्तव्य-निष्ठ किसी का ऋणी नहीं रहता, गुरु किसी का ऋणी नहीं रहता । यह निर्विवाद सत्य है । इसलिये मेरे भाई, इस बात को आप अपने मन से निकाल दें और सदा के लिये निकाल दें कि लोग हमारे बारे में सोचते क्या हैं ?


 - ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 79-81)