Saturday, 21 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 21 December 2013 
(पौष कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०७०, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान निर्दोषता में 
आस्था - 1

एक भले आदमी मुझसे कहते थे कि जब तक हम किसी की बुराई नहीं कर लेते, हमारा खाना ही नहीं पचता । दशा है यह ! यह रोग है, और मानसिक रोग है । यह क्षोभ की आवाज है, यह क्रोध की आवाज है, यह प्रमाद की पुकार है । इसलिये मेरा निवेदन है कि हम सिद्ध बनकर आपसे बात नहीं कर रहे हैं । हमने सिद्ध बनकर संस्था का निर्माण नहीं किया है। हमने तो अपने को, अपने साथियों को साधक माना है । हम साधक हैं, और साधक होने के नाते यदि आप हमारा उपकार करना चाहते हैं, हमारा कल्याण चाहते हैं, तो कम से कम हमारी बात हम से ही कहें । हमारी बात दूसरों से क्यों कहते हैं और दूसरों की बात आकर हमसे क्यों कहते हैं ? उनका काम है, वे कहें। परन्तु लोगों की ऐसी आदत बन गई है । क्या ? स्वयं आयेंगे - साहब मैं आया हूँ और अमुक भी आया है । अरे, क्या उसके मुँह नहीं है ? क्या वह मेरा परिचित नहीं है ? आप जानते हैं, इसमें क्या छिपा हुआ है ? इसमें छिपा हुआ है - बताने वाले का अपना एक प्रभुत्व । मैं ऐसी बातों की बिलकुल परवाह नहीं करता। इसलिए मेरा नम्र निवेदन है कि मानव-सेवा-संघ के ये सम्मेलन केवल साधकों के सम्मेलन हैं, परस्पर प्रीति की एकता के लिये सम्मेलन हैं, एक-दूसरे के साथ अच्छे ताल्लुक पैदा हो जायें, इस बात के सम्मेलन हैं । आप यहाँ आकर न्यायाधीश न बनें, नेता न बनें, गुरु न बनें । और आपको हमारी बुराई दीखती है, तो हमसे एकान्त में मिलकर कहें कि आपकी बुराई से हमें दुःख होता है ।

आप ईश्वर का काम नहीं कर सकते, आप समाज का काम नहीं कर सकते, आप राष्ट्र का काम नहीं कर सकते । आप अपना काम कर सकते हैं । मानव होने के नाते मानव-मात्र को अपने सम्बन्ध में विचार करने का स्वतन्त्र अधिकार है। दूसरों की सेवा करने में अधिकार है, प्यार करने में अधिकार है, आदर देने में अधिकार है । मेरा तो यह विश्वास है कि जब से दूसरों को समझाने का प्रयास किया गया, बेसमझी फैल गई । आप जानते हैं, बेसमझी कैसे बढ़ती हैं, समझाने के प्रयास से । जिन माता-पिताओं ने अपने बच्चों को प्यार दिया है, आदर दिया है और समझाने का ज्यादा प्रयास किया है, उनके बच्चे माता-पिता के विरुद्ध हो गये। आप समझते होंगे कि हमारे समझाने से दूसरे की बेसमझी मिटती है । परन्तु नहीं, ऐसा नहीं होता । बेसमझी मिटती है तब, जब बेसमझ को प्यार कर सको। तब उसमें चेतना आती है । बेसमझ को यदि आदर दे सको तो उसमें चेतना आती है। बेसमझ को सहयोग दे सको तो उसमें चेतना आती है । एक तो वह बेचारा अपनी बेसमझी से ही दुखी है, फिर तुम ऊपर से अपमान करके उसको और दुःखी बनाते हो । इसका अर्थ यह है कि आप सेवा की बात को जानते ही नहीं, मानने की तो कौन कहे । सच्चा सेवक वही होता है, जो बुरे-से-बुरे व्यक्ति को भी प्यार देने को राजी हो, जो सभी की पीड़ा से पीड़ित होने के लिये राजी हो । उसी को मानव-सेवा-संघ ने सेवक माना है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 75-77)