Friday 20 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 20 December 2013 
(पौष कृष्ण तृतीया, वि.सं.-२०७०, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
वर्तमान निर्दोषता में आस्था - 1

मुझे बड़ी व्यथा होती है, जब मैं किसी साधक को इस रूप में, किसी दूसरे की बुराई करते देखता हूँ। वास्तव में बुराई करने वाले को बुरा कहना अथवा उसे बुरा समझना उसके साथ बुराई करने से भी अधिक बुरा है। यह बात मैंने गुरु देव से सुनी थी, बहुत ही पहले बचपन में । महाराज कहने लगे कि जो किसी को बुरा समझता है, वह उससे ज्यादा बुरा है, जो बुराई करता है । उन्होंने कहा कि बुराई करने वाले के जीवन में कभी भी सजगता आ सकती है और वह पश्चात्ताप करके बुराई को छोड़ सकता है; किन्तु जो दूसरे को बुरा समझता है, उसके जीवन में तो मिथ्या अभिमान की ही उत्पत्ति और पुष्टि होती रहती है । इसलिए उसकी विशेष क्षति होती है, जो किसी की बुराई करता है, चाहे वह सच्ची हो । वास्तव में तो दूसरे की क्रियाओं को आप भली-भाँति जान ही नहीं सकते । कर्म के पीछे भाव भी होता है । भाव के पीछे विवेक भी होता है। विवेक के पीछे लक्ष्य भी होता है । अत: कौन भाई-बहिन किस समय में, किस भाव से कह रहे हैं, आप नहीं जानते । मेरा यह विश्वास है और अनुभव है कि आखों देखी बुराई के विषय में भी कोई व्यक्ति सही अर्थ में निर्णय नहीं कर सकता कि उसमें बुराई का अंश कितना है । इसलिए मेरा नम्र निवेदन है कि जो भाई, जो बहिन अपने को साधक मानते हैं, वे इस बात पर विचार करें । देखिये, मानव-सेवा-संघ सिद्धों का संघ नहीं, साधकों का संघ है । साधक उसे नहीं कहते, जिससे कभी भूल न होती हो । भूल तो सबसे होती है; किन्तु जो उसे जानने का प्रयास करता है, उसे मिटाने का प्रयास करता है, उसी को साधक कहते हैं ।

अत: यदि किसी साधक से कभी कोई भूल होती है, तो यह उसका काम है कि वह उसे देख कर, उस पर दुःखी होकर उसे मिटाने का प्रयास करे । यह आपका काम नहीं है कि आप उसकी  भूल की पूरी जानकारी से पूर्व किसी दूसरे से उसकी बुराई करने लगें । अगर आप किसी के हित-चिन्तक हैं और उसकी बुराई आपको नापसन्द आती है, तो बुराई करने वाले से ही कहें कि भाई, तुम ऐसा क्यों करते हो ? ऐसा तुम्हें नहीं करना चाहिए, ऐसा तुमको नहीं सोचना चाहिये । तो मैं मान लेता कि तुम किसी के मित्र भी हो और पराई बुराई से तुम्हारा हृदय करुणित होता है । मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि जो व्यक्ति किसी की बात किसी दूसरे से जाकर कहता है, वह दोनों की ओर से अविश्वासी होकर रहेगा । इसलिये मेरा ऐसा नम्र निवेदन है कि मुझे दुःख है, मैं नहीं चाहता हूँ कि तुम अपनी दृष्टि में भी आदर के योग्य न रहो और जिसके हित-चिन्तक बनकर तुम इस तरह की बात करते हो, उसकी दुष्टि में भी आदर के योग्य न रह जाओ । जिसकी तुम बुराई करते हो, उसके आदर के योग्य रह ही नहीं सकते। इसलिये यदि तुम अपना भला चाहते हो, दूसरों का भला चाहते हो, तो किसी की बुराई किसी के साथ मत करो, कहो मत । तुम्हारे देखते हुये, तुम्हारे सामने किसी ने बुराई की कैसे ? तुममें हिम्मत होनी चाहिये, तुममें ईमानदारी होनी चाहिये, तुममें साहस होना चाहिये, बुराई करने वाले से तुम्हें प्रीतिपूर्वक कहना चाहिये - आप ऐसा क्यों सोचते हैं ? आप भी हमारे हैं, वे भी हमारे हैं । आप ऐसा कभी न सोचें । आप यदि ऐसा करते हैं, तो आप देखेंगे कि आपको दोनों पक्षों से आदर मिलेगा, और आपका स्वयं का भला होगा भाई मेरे !


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 74-75)