Thursday, 19 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 19 December 2013 
(पौष कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

वर्तमान निर्दोषता में 
आस्था - 1

मानव होने के नाते हम सब साधक हैं । साधक उसे नहीं कहते, जो अपनी ओर नहीं देखता। साधक का सर्वप्रथम पुरुषार्थ है कि वह स्वयं अपने सम्बन्ध में विचार करे । मुझे जब-जब दूसरों का चिन्तन हुआ है, तब-तब मैं अपनी बात भूलता रहा हूँ और उसका बहुत भयंकर परिणाम मुझे भोगना पड़ा है ।

इसलिए भाई, दूसरे लोग हमारे साथ क्या करते हैं ? ऐसा सोचना सजग मानव के जीवन का प्रश्न नहीं है, यह सावधान भाई-बहिनों का प्रश्न नहीं है । जैसे वे हैं, वैसा ही वे करते हैं । यदि कोई भाई-बहिन हमारे साथ भलाई करते हैं, तो उसका अर्थ यह है कि वे भले हैं । यदि वे हमारे साथ भलाई नहीं करते, तो भाई, इसमें बुरा मानने की बात नहीं है; क्योंकि यदि कोई हमारे साथ भलाई न करे, तो उसमें उसकी कोई बुराई तो है नहीं; किन्तु यदि कोई हमारे साथ बुराई करता है, तब भी क्षोभित होने की बात नहीं है । क्यों नहीं है ? क्योंकि जिसने अपने साथ बुराई नहीं की है, वह हमारे साथ बुराई कर ही नहीं सकता । यह कर्म-विज्ञान का दार्शनिक सत्य है । यदि हमारे साथ कोई बुराई करता है, तो उसका अर्थ यही है कि उसने अपने साथ बुराई की है ।

अब हमें अपने को बुरा नहीं बनाना है, इस कारण हम बुराई के बदले बुराई नहीं करेंगे । अपितु भलाई करने का प्रयास करेंगे भले होकर । भले होने का सहज, सुगम, सुलभ, उपाय क्या है ? वह यह है कि हम अपनी वर्तमान निर्दोषता में अविचल आस्था करें । यह ऐसा दार्शनिक उपाय है, वैज्ञानिक उपाय है, अनुभव-सिद्ध उपाय है कि हम वैसे ही भले हो जाते हैं, जैसे कि बुराई की उत्पत्ति से पूर्व थे । क्योंकि हमने भूतकाल की बुराई का परित्याग कर दिया । इससे वर्तमान की निर्दोषता सुरक्षित रहेगी । जब हमारी वर्तमान निर्दोषता सुरक्षित होगी, तब हमारे द्वारा बुराई होगी ही नहीं । इस बात पर विचारशील साधक गम्भीरतापूर्वक विचार करें, अर्थात् जिसे हम बुरा समझते हैं कि उसने हमारे साथ बुराई की है, तो भाई, उसने बुराई हमारे साथ नहीं की, उसने अपने ही को बुरा बना लिया है । यद्यपि बुराई करने से पूर्व वह भला है, और बुराई करने के अन्त में भी वह भला है । बुराई तो बीच में हमारी भूल से उत्पन्न हुई और उसका नाश होगा । किन्तु हम अपने प्रति होने वाली बुराई के आधार पर जब दूसरे को बुरा समझने लगते हैं, तब दूसरा कैसा है, इसे तो वह जाने, पर हम स्वयं तो बुरे हो ही जाते हैं । उसी का परिणाम यह होता है कि जिस हृदय में प्रेम की गंगा लहरानी चाहिये, उसमें द्वेष की अग्नि जलने लगती है, भेद और भिन्नता उत्पन्न हो जाती है, जो किसी के लिए कभी भी अभीष्ट और हितकर नहीं है । अब आप विचार करें कि इस तरह हमने कितनी अपनी क्षति की, कितना अपने को बुरा बनाया !


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 72-74)