Wednesday 18 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 18 December 2013 
(पौष कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
जानने, मानने तथा करने का स्वरूप-विवेचन - 3

अगर आप यह सोच लेते, एक क्षण के लिये यह अनुभव कर लेते, और आप इसे भली-भाँति जानते भी हैं कि हमारा शरीर हमारे साथ नहीं रहेगा । आप जानते हैं कि हमारे साथी सुषुप्ति में नहीं होंगे । हम जानते हैं कि हमारा सामान सुषुप्ति में हमारे साथ नहीं होगा, और हम फिर भी होंगे । बे-सामान के भी हम होंगे, बिना साथियों के भी हम होंगे । और यह भी सोचिये कि जब हम बिना सामान और बिना साथियों के होते हैं, तब क्या दुःखी होते हैं ? क्या अभाव से पीड़ित होते हैं ? क्या पराधीन होते हैं ? मानना पड़ेगा कि नहीं । दुखी तो नहीं होते । लेकिन यह नहीं जानते कि कैसे होते हैं । बिलकुल ठीक कहते हैं; किन्तु आप जान सकते हैं । आप पूछें, कैसे जान सकते हैं ? तो उत्तर होगा दिन जाग्रत में, किसी भी कार्य के प्रारम्भ से पूर्व आप शान्त होने का स्वभाव बनायें, कार्य के आरम्भ से पूर्व और कार्य करते समय इस बात पर विचार करें कि हम वह नहीं करेंगे, जो नहीं करना चाहिये । और उस कार्य को संकल्प के रूप में, कामना के रूप में जमा नहीं रखेंगे, जिसे नहीं कर सकते । इन तीनों बातों पर ध्यान रखें । कार्य से पूर्व शान्त हो जायँ। कार्य वह करें, जो करना चाहिये और जिसे कर सकते हैं । वह न करें, जो नहीं करना चाहिये, और जिसे कर नहीं सकते । परिणाम में आपको शान्ति प्राप्त होगी। शान्ति का सम्पादन होते ही आपका प्रवेश, आपके न चाहने पर भी, बिना किसी श्रम के, उस जीवन में होगा, जिसमें कोई और नहीं है, कोई गैर नहीं है। जहाँ कोई और नहीं है, वहाँ निर्भयता है । जहाँ कोई गैर नहीं है, वहाँ परम प्रेम की अभिव्यक्ति है । वह जीवन आपका जीवन है । और वह आपको प्राप्त है, अप्राप्त नहीं है, मिला है । केवल आप उसको भूल गये हैं । आप उससे दूर नहीं हुए, आप उससे अलग नहीं हुए, आप उससे विभाजित नहीं हुए । वह जीवन आपका है, सदैव आपका है, सदैव आपका रहेगा ।

परन्तु मेरे भाई ! सामान की दासता ने, साथियो की ममता ने, परस्पर के संघर्ष ने ही हमें आज अपने वास्तविक जीवन से विमुख कर दिया है । हम इस वास्तविक जीवन को भूल गये हैं । इसलिए मेरा नम्र निवेदन है कि आप मानव हैं, आपके जीवन का बड़ा महत्त्व है । आपसे सभी का महत्त्व है, आपका किसी और से महत्त्व नहीं है । जरा सोचिये तो सही, भक्तों ने भगवान के महत्त्व को प्रकाशित किया, कि भगवान् ने स्वयं अपने महत्त्व को प्रकाशित किया ? क्या राय है आपकी ? - भक्तों ने । भक्त मानव है या भगवान ? जरा विचार करो, कितना महत्त्व है आपका ? अच्छा भैया, बताओ तो सही, जिज्ञासा-पूर्ति मानव की हुई या देवताओं की ? - मानव की । सन्देह-निवृति किसकी हुई ? कर्त्तव्य-परायणता किसमें आई ? - मानव में । कर्त्तव्य-परायणता से जीवन जगत् के लिये उपयोगी हुआ कि नहीं ? हुआ । सन्देह-निवृत्ति से जीवन अपने लिये उपयोगी हुआ कि नहीं ? हुआ । अच्छा, भक्त होने से जीवन भगवान् के लिये उपयोगी हुआ कि नहीं ? हुआ । यह आपका अपना महत्त्व है, कि नहीं है ? किन्तु हमने यह सोचा ही नहीं कि जो हमारे बिना रह सकता है, हम उसके बिना क्यों नहीं रह सकते । जरा विचार तो कीजिये, सोचिये तो सही, कि जो हमारे बिना रह सकता है, हम उसके बिना क्यों नहीं रह सकते ? रह सकते हैं । जब रह सकते हैं, तब क्या कामना का स्थान रह गया ? ममता का स्थान रह गया ? फिर ममता और कामना से रहित होने में क्या आप पराधीन हैं ? क्या असमर्थ हैं ? कदापि नहीं। किन्तु आप विचार ही नहीं करते कि हमारे जीवन का क्या महत्त्व है । इसलिये आप सोने से पहले और जागने के बाद, कार्य के आरम्भ और अन्त में अपने सम्बन्ध में विचार करना आरम्भ कर दें और अपने अनुभव के आधार पर विचार करें । आप जानते ही हैं कि 24 घंटों में कुछ समय ऐसा भी होता है, जब हम बे-साथी और बे-सामान के होते है । तो भाई, उस समय क्या आप दुःख का अनुभव करते हैं ? बोले, नहीं । किन्तु क्या बतायें, यह जड़ता के आधार पर होता है। मानव-सेवा-संघ ने कहा - नहीं भाई, जाग्रत अवस्था में कार्य के आरम्भ से पूर्व, कार्य के अन्त में यदि आप शान्त हो जायँ, तो वही जीवन, जो सुषुप्ति में आपने अनुभव किया था, जाग्रत में प्राप्त होगा और उसी जीवन से आप अपने लिये, जगत् के लिये, जगत्पति के लिये उपयोगी होंगे - यह निर्विवाद सिद्ध है ।


 - ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 70-72)