Tuesday 17 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 17 December 2013 
(मार्गशीर्ष पूर्णिमा, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

जानने, मानने तथा करने का स्वरूप-विवेचन - 3

आज दुःख के साथ कहना पड़ता है कि हम अपना गुरु बनना नहीं चाहते, अपना नेता बनना नहीं चाहते, अपना शासक बनना नहीं चाहते । हम सोचते रहते हैं कि अमुक को यह नहीं कहना चाहिये, अमुक को यह नहीं करना चाहिये । ठीक बात है बाबू। पर यह भी तो सोचिये कि तुमको क्या करना चाहिये ? तुमको क्या नहीं करना चाहिये ? तुम्हें यह बात सोचने का अवकाश ही कैसे मिला कि तुमने अपने कर्त्तव्य का पालन कर लिया और दूसरे के कर्त्तव्य का स्मरण भी कर लिया? इससे बढ़कर अपने को धोखा देने वाली दूसरी कोई बात नहीं है । सोचिये कि जीवन में विस्मृति क्यों है ? असमर्थता क्यों है ? अकर्त्तव्य क्यों है ? यह आपके भाग्य में नहीं लिखा है, यह प्राकृतिक दोष नहीं है । यह इसलिए है कि हमने आज अपने सम्बन्ध में विचार करना छोड़ दिया । इसलिए भाई ! मेरी नम्र प्रार्थना है कि मेरी व्यथा दूर करने में आप हमें अपना सहयोग दें । आप जानते हैं, मेरी व्यथा क्या है ? वह यह है कि हम अपने-अपने सम्बन्ध में विचार करने का, आत्म-निरीक्षण करने का स्वभाव नहीं बनाते । मैं आपसे यह कहने नहीं आया हूँ कि जो मैं कहता हूँ उस बात को आप मान लीजिये । परन्तु क्या मुझे यह भी कहने का अधिकार नहीं है कि आप जो स्वयं जानते हैं, उसे तो मान लें । यदि आपने ऐसा किया, तो इसमें मेरी बात भी हो गई ।

मेरा निवेदन है कि आप मानव हैं, आपकी बड़ी महिमा है । आप जो कर सकते हैं, उसे दूसरा कोई कर ही नहीं सकता । यह आपकी महिमा है । यदि आप पूछें कि हम क्या-क्या कर सकते हैं ? तो सुनिये, ईश्वर में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह सृष्टि को अपनी न कहे, लेकिन आप में यह सामर्थ्य है कि आप मिले हुये शरीर को अपना न कहे । जरा विचार तो कीजिये । ईश्वर में यह सामर्थ्य नहीं है कि जिसका वह ज्ञाता न हो, उसे वह मान ले । आप में यह सामर्थ्य है कि जिसको आप नहीं जानते, उसको मान लें । यह विनोद नहीं कर रहा हूँ । आप इस पर गम्भीरता से सोचिये । हाँ, यह बात जरूर है कि आपकी यह महत्ता आपको अपने रचयिता से ही मिली हुई है । यह उसकी महिमा है कि उसने आपको इतना सुन्दर बनाया है । आप सुने हुये पर अपने को निछावर कर सकते हैं, मिले हुये की ममता छोड़ सकते हैं । आप बिना मिले हुये की कामना तोड़ सकते हैं । यह आप में सामर्थ्य है । किन्तु हमने आज अपने महत्त्व को भुला दिया और अपना मूल्यांकन करने लगे परिस्थिति के आश्रित, वस्तु के आश्रित, पद के आश्रित, सीमित योग्यता के आश्रित, क्षण-भंगुर शरीर के आश्रित । यह भूल है । और यह इसलिये हुई कि हमने कभी यह सोचा ही नहीं कि श्रमरहित होकर, सामान-रहित होकर, साथियों से रहित होकर भी हमारा अपना कोई महत्त्व है।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 69-70)