Tuesday 31 December 2013

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Tuesday, 31 December 2013 
(पौष कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०७०, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
व्यर्थ-चिन्तन का स्वरूप और माँग की पूर्ति – 2

        क्या हम मिले हुये की ममता नहीं छोड़ सकते ? अप्राप्त वस्तु अवस्था आदि की कामना नहीं छोड़ सकते ? क्या हम सुने हुये प्रभु को अपना नहीं मान सकते ? क्या हम अवस्थातीत जीवन में आस्था नहीं कर सकते ? कर सकते हैं । तो, जो कर सकते हैं, उसको न करें और जो नहीं कर सकते हैं, उसको करने का प्रयास करें, यही तो मूल भूल है । इस भूल का अन्त आप कर सकते हैं और शान्ति के द्वारा कर सकते हैं । क्योंकि शान्ति प्राप्त होने पर आपके जीवन में सजगता अपने आप आयेगी, अपने आप सामर्थ्य आयेगी । अपने आप आपकी जो वास्तविक माँग है, उसकी जागृति होगी - स्मृति के रूप में । अब प्रश्न केवल इतना रह जाता है कि हम सभी साधक 'साधक' होने के नाते, आवश्यक कार्य पूरा करें, अनावश्यक कार्य का त्याग करें, और कार्य के अन्त में शान्ति का सम्पादन सहज भाव से होने दें। जैसे-जैसे शान्ति का सम्पादन सबल और स्थायी होता जायगा, वैसे-ही-वैसे आवश्यक सामर्थ्य की अभिव्यक्ति, विचार का उदय, प्रीति की जागृति स्वत: होगी । यही है - अखण्ड स्मृति । अखण्ड स्मृति से निराश नहीं होना है । वह आपका अपना जीवन है । वह आपकी अपनी निज की सम्पत्ति है । स्मृति ही तो जीवन है । आप सोचिये कि स्मृति से भिन्न क्या प्रियता कोई अन्य वस्तु है? स्मृति से भिन्न क्या बोध कोई और वस्तु है ? स्मृति से भिन्न क्या प्राप्ति कोई और वस्तु है ? नहीं है । स्मृति का ही रूप है बोध, स्मृति का ही रूप है प्राप्ति, स्मृति का ही रूप है अगाध प्रियता ।

इस दृष्टि से जब आप विचार करेंगे, तो ज्ञात होगा कि व्यर्थ-चिन्तन के नाश में ही अखण्ड स्मृति है, और अखण्ड स्मृति की जागृति में ही जीवन की पूर्णता है । इस पूर्णता से हमें निराश नहीं होना है, अपितु इस पूर्णता के लिये नित-नव उत्कट लालसा जगाना है । लालसा कब जागेगी ? जब आप इस बात को स्वीकार करेंगे कि हम सभी को अखण्ड स्मृति प्राप्त हो सकती है, व्यर्थ चिन्तन मिट सकता है । पर उसके लिये जाने हुए के प्रभाव की आवश्यकता है । किये हुए का प्रभाव, किये हुए के द्वारा नाश नहीं होता । होता क्या है ? जिस भाई ने गुजराती दाल खाई होगी, वह जानता है कि गुजराती दाल में गुड़ भी पड़ता है, नमक भी पड़ता है और खटाई भी पड़ती है । ये तीनों ही चीजें अपना-अपना स्वाद रखती हैं । एक के द्वारा दूसरे का नाश नहीं होता । इसी प्रकार किये हुए का प्रभाव किये हुए से नाश नहीं होता । यह दार्शनिक सत्य है । यदि आप महानुभाव विचार करेंगे, तो आपका यह अपना सत्य मालूम होगा । इसलिये मेरा नम्र निवेदन है भाई, कि जो आपके बिना किये हो रहा है, बिना चाहे हो रहा है, उससे भयभीत न हों, उसका सुख न लें, उसमें तादात्म्य न जोड़ें, अपितु उससे असहयोग करें और जो सदैव आपका अपना है, उसमें चाहे आत्मीयता करें और चाहे उसकी खोज करें । देखिये, खोज और आत्मीयता - ये दोनों ही स्वतंत्र पथ हैं। विचारक खोज करते हैं, श्रद्धावान् आत्मीयता स्वीकार करते हैं । किन्तु दोनों प्रकार के पथ के अनुसरण करने के लिये मिले हुये की ममता का त्याग, अप्राप्त वस्तु की कामना का त्याग, मिले हुये के दुरुपयोग का त्याग अनिवार्य है । इस दृष्टि से हम सब व्यर्थ-चिन्तन से मुक्त होकर, अखण्ड स्मृति से अभिन्न होकर, कृतकृत्य हो सकते हैं । यह निर्विवाद सत्य है ।


 - ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 90-92)