Wednesday, 1 January 2014

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Wednesday, 01 January 2014  
(पौष अमावस्या, वि.सं.-२०७०, बुधवार)

व्यर्थ-चिन्तन और उसका दुष्परिणाम – 1

मानव सेवा संघ की सत्संग-योजना में जीवन है, और वह एक है । रुचि, योग्यता, सामर्थ्य, परिस्थिति का भेद होने से साधन में भेद का होना सर्वथा स्वाभाविक है । परन्तु माँग के रूप में तथा उसकी प्राप्ति के फल में, जीवन की उपलब्धि में, कोई अन्तर नहीं है, अर्थात् साधन में भेद होने पर भी साध्य की प्राप्ति में कोई अन्तर नहीं है । रुचि के आधार पर साधन एक नहीं है, परिस्थिति के आधार पर साधन एक नहीं है; किन्तु मानव होने के नाते जब हम सब एक हैं, तो हम सब की अन्तिम माँग भी एक है और अन्तिम उपाय भी एक है । 'अन्तिम उपाय' की बात सुनकर यह मत सोच बैठना कि मैं व्यक्तिगत भिन्नता मानने पर भी यह बात क्यों कहता हूँ । सोचिये, अन्तिम उपाय क्या है ? यही न, कि हम लोगों के जीवन में से व्यर्थ-चिन्तन का नाश हो जाय । व्यर्थ-चिन्तन का अर्थ क्या है ? मेरे भाई ! जो आपके न चाहने पर होता है, आपके न करने पर होता है, ऐसा जो चिन्तन है, वह 'व्यर्थ-चिन्तन' है । एक बात । दूसरी बात यह है कि जिसकी प्राप्ति कर्म-सापेक्ष है, उसका चिन्तन व्यर्थ-चिन्तन है । तीसरी बात यह है कि जिसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, उसका चिन्तन व्यर्थ-चिन्तन है । इस व्यर्थ-चिन्तन से सभी साधकों को चाहे वे भौतिकवादी हों, चाहे वे अध्यात्मवादी हों, चाहे वे ईश्वरवादी हों, बचना है। क्यों बचना है ? इसलिये कि व्यर्थ-चिन्तन के रहते हुये न तो शान्ति मिलती है और न स्वाधीनता मिलती है । इतना ही नहीं, मिली हुई सामर्थ्य का ह्रास भी होता है और यह बड़ी भारी क्षति है ।

क्या आप नहीं जानते, कि प्राकृतिक-विधान के अनुसार जिस भाई को जो सामर्थ्य मिली है, जो योग्यता मिली है, जो परिस्थिति मिली है वह उसकी आवश्यकता के अनुसार ठीक-ठीक ही मिली है, अधिक नहीं मिली, कम नहीं मिली । जितनी योग्यता से हमारा विकास हो सकता है, जितनी सामर्थ्य से हमारा विकास हो सकता है, जिस परिस्थिति में हमारा विकास हो सकता है, हमें वही सब मिला है । मानव-सेवा-संघ के दर्शन में मिले हुए का आदरपूर्वक स्वागत करना है, उससे खीजना नहीं है । जिसने दिया है, उसने हम लोगों से लिया कुछ नहीं, दिया ही दिया है । तो बिना लिये जो देता है, वह आवश्यकता के अनुसार ही देता है, यह प्राकृतिक सत्य है । लेने की आशा से जो कोई देता है, वह भूल कर सकता है । किन्तु जिसने बिना किसी आशा के केवल दिया ही दिया है, लिया कुछ नहीं, उसके देने में क्षोभ नहीं है, क्रोध नहीं है, संकीर्णता नहीं है, बेसमझी नहीं है, असावधानी नहीं है, अपितु ठीक-ठीक सजगतापूर्वक सावधानीपूर्वक, विधिवत दिया है । आप कहें, कि हम कैसे मानें कि यह ठीक है ? यही प्रश्न कोई मुझसे आज से लगभग  50 वर्ष पहले करता, तो मेरा भी यही उत्तर होता । सोचता कि  'नहीं-नहीं', देने वाले को अक्ल ही नहीं है, दुनियाँ के शब्दों में एक होनहार बालक को, जो पढ़ना चाहता था, अन्धा बना दिया, इत्यादि ऐसा मैं सोचता। परन्तु आज मैं बड़ी ही ईमानदारी से कहने के लिये तत्पर हूँ कि मुझे अन्धा बनाना किसी की मेरे लिये अगाध आत्मीयता और प्रियता का ही शुभ परिचय है। आज का मानव उसी को कोसता है, जो उसका इतना अपना है कि जितना वह स्वयं भी अपना नहीं है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 92-93)