Thursday, 2 January 2014

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 02 January 2014  
(पौष शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०७०, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
व्यर्थ-चिन्तन और उसका दुष्परिणाम – 1

आप जानते ही हैं कि अव्यक्त से व्यक्त की उत्पत्ति होती है, 'कुछ नहीं' से 'सब कुछ' बनता है । जिसमें यह सामर्थ्य है, क्या उसके पास कोई अभाव है ? जो सर्वदा है, सब कुछ जानता है, क्या वह बेसमझ है ? कदापि नहीं । इसलिये भाई मेरे ! व्यर्थ चिन्तन में प्रधान कारण है - प्राप्त परिस्थिति का आदरपूर्वक स्वागत न करना । यदि आप प्राप्त परिस्थिति का आदरपूर्वक स्वागत नहीं करते हैं, तो कभी व्यर्थ-चिन्तन से मुक्त नहीं हो सकते । जीवन का बहुत बड़ा भाग इसी चिन्ता में निकल जाता है - ऐसा क्यों हुआ ? ऐसा होता, तो अच्छा होता । ऐसा क्यों हुआ ? ऐसा होता, तो ठीक होता, और ऐसा, जो हम कहते हैं कि ऐसा क्यों हुआ ? इस के मूल में दुःख का भय छिपा रहता है, सुख का प्रलोभन छिपा रहता है । दुःख का भय और सुख के प्रलोभन को रखते हुये, क्या होना चाहिये - इसका निर्णय करना कभी भी सम्भव नहीं है । इसलिये भाई, जो मिला है - रुचि, योग्यता, सामर्थ्य, वस्तु परिस्थिति, अनुकूलता, प्रतिकूलता - कुछ लोग उसी से जीवन में आनन्द पाते हैं । बहुत से भाई -बहिनों ने मुझ से ऐसे प्रश्न भी किये हैं कि हम जिसके साथ भलाई करते हैं, वह हमारे साथ बुराई करता है । ऐसा क्यों ? अगर वे लोग अपने दिल से सोचें कि बुराई करने पर - जैसे, कल्पना करो, एक बाप कहता है कि मेरा बेटा मेरे साथ बुरा व्यवहार करता है - कोई भाई अपने पर इसी बात को घटा कर देखे। क्या मेरा भाई मेरे साथ अच्छा व्यवहार नहीं करता ? मैं भला करता हूँ वह बुरा करता है । इतने पर भी तो हजरते इंसान ! तुम्हारी यह दशा है, कि वह नालायक बेटा तुम्हें जितना प्यारा लगता है, लायक पड़ोसनी का लड़का उतना प्यारा नहीं लगता ।

जरा अपने दिमागी स्टैण्डर्ड के बारे में तो सोचिये कि उसकी क्या हालत है, हुजूर की ? यानी पड़ोसी के लायक बेटे की अपेक्षा आपको अपने नालायक बेटे को धन देना पसन्द है, कि जो आपका अपमान करता है और जिसकी आप शिकायत भी करते हैं । यह तो आपकी दशा है ! और प्रभु के न्याय की ओर देखिये कि वह प्रेम से कितना भरा है ! इतने पर भी जब हम ममता नहीं छोड़ सकते। और अगर राम जैसा आर्दश बेटा तुम्हें मिल - जाता, तो न जाने तुम्हारी क्या दशा होती, दोस्त ? कर्कशा नारी मिलने पर तो काम से रहित नहीं हो सकते। अगर सुन्दर नारी मिल जाती, तो क्या होता ? अपमान सहने पर भी देहाभिमान गला नहीं सकते । यदि सम्मान मिल गया होता, तो न जाने क्या होता ? पेट खराब होने पर भी बिना भूख के खा सकते हैं, यदि पेट ठीक होता, तो दुनियाँ को खा जाते क्या ? तात्पर्य यह है भाई ! कि जिसने आपको जो कुछ दिया है, वह तुम्हारे हित को सामने रख कर ही दिया है, आपके कामों का दंड नहीं दिया है । मैं आपसे निवेदन कर दूँ । मानव से इतर योनियों में क्या होता है, मैं नहीं जानता। परन्तु मानव को प्रभु दण्ड नहीं देता, विधान मानव को दंड नहीं देता, तो फिर क्या देता है ? जिस परिस्थिति से आपका विकास होता है, वही परिस्थिति आपको देता है ।


 - (शेष आगेके ब्लाग में) ‘प्रेरणा पथ' पुस्तक से, (Page No. 93-95)