Saturday, 21 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 21 April 2012
(वैशाख अमावस्या, वि.सं.-२०६९, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी को बुरा न समझना 

        जब अपराधी भूल-जनित दोष से पीड़ित होता है, तब उसमें से दोष-जनित सुख-लोलुपता मिट जाती है, जिसके मिटते ही पुनः दोष न दोहराने की तीव्र माँग जाग्रत होती है । पर जब उसे दूसरा अपराधी मानने लगता है, तब वह क्षुभित तथा क्रोधित होकर दूसरों के दोष देखने लगता है । दूसरों का दोष देखते ही अपने में से दोषी होने की वेदना शिथिल होने लगती है । इससे उसका और दूसरों का अहित ही होता है ।

         इसी कारण दूसरों के द्वारा किया हुआ न्याय निर्दोषता की स्थापना नहीं कर पाता । परन्तु जब वर्तमान निर्दोषता के आधार पर अपराधी को कोई दोषी नहीं मानता, तब अपराधी स्वयं भूतकाल की भूल को न दोहराने के लिए तत्पर हो जाता है और वर्तमान निर्दोषता में स्थिर होकर सदा के लिए निर्दोष हो जाता है। इस दृष्टि से अपने द्वारा ही अपने प्रति न्याय करना हितकर सिद्ध होता है ।

        यदि अपराधी की वर्तमान निर्दोषता को स्वीकार नहीं किया जाता, तो उसकी अहंता में से अपराधी-भाव निवृत नहीं होता और फिर वह अपराधी होकर अपराध करने में तत्पर हो जाता है।

        सर्वांश में तो कोई अपराधी होता ही नहीं । बड़े-से-बड़े हिंसक में भी किसी न किसी के प्रति करुणा होती है । बेईमान भी अपने साथी के लिए ईमानदार सिद्ध होता है । इतना बुरा कोई हो ही नहीं सकता, जो सभी के साथ सदैव बुराई करे । सर्वांश में निज-ज्ञान का अनादर करना किसी भी मानव के लिए सम्भव ही नहीं है । इस दृष्टि से सर्वांश में कोई दोषी होता ही नहीं, यह प्राकृतिक तथ्य है । अतः किसी को बुरा समझना बुराई करने की अपेक्षा गुरुतर भूल है ।  

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 30-31) ।