Sunday, 22 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 22 April 2012
(वैशाख शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०६९, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी को बुरा न समझना 

        किसी में बुराई की स्थापना करना, उसके लिए और अपने लिए अहितकर ही है । किसी को बुरा समझने पर अपने में अशुद्ध संकल्पों की उत्पत्ति होती है और क्षोभ तथा क्रोध उत्पन्न होता है, जो कर्तव्य की विस्मृति में हेतु है। अशुद्ध संकल्पों से किसी-न-किसी अंश में अशुद्ध कर्म होने ही लगता है । इस दृष्टि से दूसरों को बुरा समझने से अपने में बुराई उत्पन्न हो जाती है ।

       यदि किसी को बुरा न समझे, तो उसमें अशुद्ध संकल्प उत्पन्न नहीं होते और न वैर-भाव की उत्पत्ति होती है, अपितु समता आ जाती है, जिसके आते ही सर्वात्म-भाव जाग्रत होता है, जो विकास की भूमि है । किसी-न-किसी नाते समस्त विश्व अपना है । अपने में दोष की स्थापना करना, न तो न्याय है और न प्रेम ।

        अब यदि कोई यह कहे कि दोषी न मानने से, उसे भयभीत न करने से दोषी में दोषों की प्रवृति उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहेगी, जो समाज के लिए अहितकर है । पर वास्तव में बात ऐसी नहीं है; कारण, कि किसी में दोषों की उत्पत्ति होती ही कब है ? जब वह अपने को दोषी बना लेता है ।

        अब विचार यह करना है कि वह अपने को दोषी क्यों बना लेता है ? पर-दोष देख, क्षुभित होने से, अथवा यों कहो कि जब उसके साथ कोई बुराई करता है, तब अपने को निर्दोष मानकर बुराई के बदले में बुराई करने के लिए अपने को बुरा बनाता है। पर उसे इस बातका स्वयं पता नहीं रहता कि बुराई का प्रतिकार करने के लिए मैं स्वयं बुरा हो गया ।

        बुराई का प्रतिकार प्राकृतिक नियमानुसार बुराई करना नहीं है, अपितु क्षमाशील होकर, करूणित होकर उसके प्रति भलाई करना अथवा हित-कामना करना है । सभी के प्रति हित-कामना बिना स्वीकार किए, निर्दोषता व्यापक नहीं हो सकती । इस कारण बुराई-काल में ही यदि हम उसे बुराई न करने दें, आत्मीयतापूर्वक आदर और प्यार दें, करूणित होकर उसकी भूल से स्वयं दुखी हो जाएँ, उसके कर्तव्य की ओर संकेत करें तथा उसे उसकी महिमा से परिचित कराकर हृदय से लगाएँ तो वह अवश्य बुराई-रहित  हो जाएगा ।  

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 31-32) ।