Friday, 20 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Friday, 20 April 2012
(वैशाख कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६९, शुक्रवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
किसी को बुरा न समझना 

        किसी भी साधक को किसी को बुरा समझने का अधिकार ही नहीं है; कारण, कि दूसरे के सम्बन्ध में पूरा जानना सम्भव नहीं है। अधूरी जानकारी के आधार पर निर्णय  देना न्याय नहीं है । न्याय करने का अधिकार किसी व्यक्ति को किसी भी व्यक्ति के प्रति नहीं है । व्यक्ति समाज के अधिकार की रक्षा कर सकता है, किसी के प्रति बलपूर्वक न्याय नहीं कर सकता ।

      न्याय तो प्रत्येक साधक अपने ही प्रति कर सकता है । न्याय का सर्वप्रथम अंग है, "अपराधी अपने अपराध से परिचित हो जाय, अर्थात् अपनी भूल से उत्पन्न अपराध को स्वीकार करे, किन्तु सदा के लिए सर्वांश में अपने को अपराधी न माने ।"

        प्राकृतिक नियमानुसार कोई भी सदा के लिए दोषी होकर नहीं रहना चाहता और सर्वांश में कोई दोषी भी नहीं है । सभी में स्वभाव से ही निर्दोषता की माँग है । आंशिक दोष की उत्पत्ति भूल-जनित है, स्वभाव-जनित नहीं; कारण, कि दोष का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है ।

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 30) ।