Thursday, 19 April 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Thursday, 19 April 2012
(वैशाख कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.-२०६९, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
जगत् के लिए उपयोगी होना

         अपने लिए उपयोगी होने पर जीवन जगत् और जगत्पति के लिए उपयोगी होता है, यह निर्विवाद सत्य है। परन्तु अब विचार यह करना है कि जगत् के लिए उपयोगी होने के लिए साधक में किस साधन-निधि की अभिव्यक्ति होती है ? इस सम्बन्ध में विचार करने से यह स्पष्ट विदित होता है कि जब साधक अपने लिए उपयोगी हो जाता है, तब उसे मिली हुई वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदि की अपेक्षा नहीं रहती ।

        उसका परिणाम यह होता है कि उसके द्वारा मिली हुई वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य का दुरूपयोग नहीं होता, अपितु स्वभाव से ही सदुपयोग होने लगता है । इतना ही नहीं, बुराई के बदले में भी वह बुराई नहीं करता । यही कर्तव्य-विज्ञान है । कर्तव्य-विज्ञान से सुन्दर समाज का निर्माण होता है, यह मंगलमय विधान है । 

- (शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन-निधि' पुस्तक से, (Page No. 25-26) ।