Wednesday, 15 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Wednesday, 15 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण अष्टमी, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सेवा ही जीवन का सार सर्वस्व

       मानव जीवन में सेवा का व्रत एक महत्वपूर्ण साधन है क्योंकि सेवा प्रेम का क्रियात्मक रूप है और त्याग प्रेम का विवेकात्मक रूप है। प्रेम तत्व में ही जीवन की पूर्णता है । जबतक प्रेम तत्व से अभिन्नता नहीं होती तबतक जीवन पूर्ण नहीं होता । प्रेम तत्व की प्राप्ति के लिए सेवा और त्याग साधन हैं । सेवा और त्याग के बिना प्रेम की प्राप्ति नहीं होती । तो दुःख का प्रभाव हमें त्याग की प्रेरणा देता है और सुख हमें सेवा की प्रेरणा देता है । इस हिसाब से सेवा और त्याग साधना हुईं और प्रेम तत्व की प्राप्ति साध्य हुआ ।

        सेवा कोई नहीं कर सकता, ऐसी बात है ही नहीं । किसी का बुरा न चाहो यह नहीं कर सकता ? बुराई-रहित वह नहीं हो सकता ? (श्रोता का उत्तर "हो सकता है") तो मानवमात्र सेवा कर सकता है कि नहीं ? सेवा का आरम्भ जो होता है वह बुराई-रहित होने से, मध्य में सुखद घड़ियों में यथाशक्ति भलाई से और अन्त में अचाह होने से । अगर भलाई का फल चाहेगा तो सेवा नहीं हो सकती; बुराई-रहित नहीं होगा तो सेवा नहीं हो सकती । तो भलाई का फल मत चाहो और बुराई-रहित हो जाओ यही तो सेवा का स्वरूप है । 

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 28-29) । 

Service: The only quintessence of life

(Continuance from the last blog-post)

       The solemn vow of service is an important sadhana in human life because service is the operative anatomy of love and renunciation is its core of perceptive wisdom. Life attains to its mellow fruitfulness only in the quintessence of love. It does not gain perfection so long as there is no identity of oneness with the kernel of love. Service and sacrifice are the means to realize the quintessence of love. Love is not attained in the absence of service and self-abnegation. Suffering inspires us to surrender, to forgo and happiness inspires to render service. Accounting this way, service and renunciation are modes of sadhana and the sadhya, the ideal, is to realize quintessential love.

        It is absolutely erroneous to conceive that someone or anyone is incapable of effecting service. Can’t he generate goodwill enough not to wish ill of anyone? Can’t he be free from evil? The audience replies he can be. Can’t human being as a whole, then afford to offer their services in this way? Service begin with getting clear of evil, by doing good in accordance with capacity in the interim of joyous spells and being desireless at the end. Service can’t come about with desire for the fruit of it, nor can it be brought about unless evil is cleared away.  Thus, not to desire the fruit of doing good and to get rid of evil, this epitomizes the identity of service.

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 35-36)