Saturday, 11 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
सेवा ही जीवन का सार सर्वस्व
अब आप विचार करके देखें कि सुख का भोग तो अच्छा लगता है, लेकिन उसका परिणाम अच्छा होता है क्या ? जिसका परिणाम रुचिकर नहीं होता उससे अरुचि हो जाना, उसको नापसन्द करना क्या स्वाभाविक बात नहीं है? हम परिणाम पर दृष्टि न रखें और सुखद अनुभूति को जीवन मान लें, क्या यह साधक का लक्ष्ण है ?
क्या कोई भी सुखद अनुभूति ऐसी होती है, जिसका आरम्भ और अन्त दुःखमय न हो । आरम्भ भी जिसका दुःख है और अन्त भी जिसका दुःख है, केवल कुछ काल के लिए आपको सुखद अनुभूति होती है तो सुख का भोग दुःख है या सुख ? दुःख ही है। भोग नाश हो जाएगा, भोग करने की शक्ति का ह्रास हो जाएगा, यदि एस सत्य को स्वीकार करें तो भोगों को भोगने का सुख, सुख है क्या ?
तो मैं यह निवेदन कर रहा था कि प्रत्येक भाई-बहन को अपने जाने हुए सत्य का ठीक-ठीक अध्ययन करना चाहिए, मनन करना चाहिए और स्वीकार करना चाहिए । आप विचार करके देखिये, आपको भूख अच्छी मालूम होती है जब हम यह विश्वास कर लेते हैं कि हम भूखे हैं । तो भूख का लगना सुखद मालूम होता है कि नहीं ? भोजन करने के साथ-साथ भोजन करने की सामर्थ्य का ह्रास हो जाएगा । भोग-सामग्री का विनाश हो जाएगा । अब इस सत्य को सामने रखें तो क्या लगेगा? सुख का जो प्रलोभन है वह रह जाएगा ।
-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 26) ।
Service: The only quintessence of life
(Continuance from the last blog-post)
Now consider the psychology of enjoyment in view of the fact that whereas it feels good in the interim, does it keep going consequentially? Isn’t it natural to dislike it outright with its uninteresting consequence? Is it the mark of sadhaka not to keep an eye on the resultant and regard indulgence in pleasure as fulfilled life?
Is there any pleasurable experience without sorrowful origin and end? Dos enjoyment originating with perturbation of pain and ending in sorrow, with only a brief interim of pleasant perception, amount really to sorrow or joy? It is only sorrow. Indulgence will peter out; the energy to enjoy will diminish. If we accept the overt truth of life, does enjoyment reckon with happiness?
I have been urging intently on every sadhaka, brother and sister, to study exactly the truth already known to them, to ponder over and accept them. Think and look! Hunger appeals when we believe we are hungry. Then does the feeling of hunger appears pleasant or not? As we keep eating the capacity to take will diminish. The food-stuff will undergo demolition, only the temptation to indulge will remain.
-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 33)