Sunday, 12 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Sunday, 12 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण पंचमी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सेवा ही जीवन का सार सर्वस्व

        जब जीवन में से सुख का प्रलोभन चला जाता है या आप स्वयं छोड़ देते हैं तो दुःख का भय भी चला जाता है। क्योंकि सुख के भोगी को ही तो दुःख भोगना पड़ता है । यह जो दुःख है यह हमारी मर्जी से आता है कि अपने आप आता है। अपने आप आने वाले दुःख के प्रभाव को अपनाना चाहिए या नहीं? हम सुख के बाद दुःख का भोग करने लगते हैं । हाय ! हम बहुत दुखी हैं, हाय ! हम बहुत दुखी हैं । इस प्रकार दुःख का भोग करने लगते हैं उसके प्रभाव को नहीं अपनाते । अगर हम दुःख के प्रभाव  को ठीक-ठीक अपनाएँ तो उससे सुख का नाश नहीं होगा, उसका प्रलोभन नाश होगा ।

        सुख के प्रलोभन का नाश होने पर सुख में आसक्ति रह सकती है क्या ? अच्छा और दुःख के प्रभाव को अपनाने पर दुःख का भय रहता है क्या ? तो दुःख का भय न रहे, सुख का प्रलोभन न रहे, सुख आए, चला जाय, दुःख आए अपना प्रभाव दे जाए। अब जीवन में इस प्रकार देखा जाय तो दुःख साधन-सामग्री है या कुछ और है ? अगर दुःख को हम साधन-सामग्री स्वीकार करें तो हम सुख के भोगी न बनकर सेवा करनेवाले बन जाएँ । 

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 26-27) । 

Service: The only quintessence of life

(Continuance from the last blog-post)

        When temptation for pleasure goes away from life or you abnegate it yourself, the fear of pain also departs. It is because he alone who indulges in pleasure is bound to suffer pain. Does sorrow come whenever we wish or does it come on its own? Should we not adopt instead the edifying import of suffering which comes on its own? After indulging in pleasure we begin to wallow in the mire of agony exclaiming ‘oh! We are seriously anguished.’ Thus do we tend to wallow in suffering instead of assimilating its import? If we adopt exactly the edification of wisdom from suffering, it will demolish only our temptation for joy, not the joy itself.

        Can attachment to pleasure survive the demolition of fascination for it? Well, does fear of suffering obtain after adopting the influence of wisdom instilled by it? It is worthwhile that there be no fear of suffering, no lure of pleasure; let pleasure come and go away, let pain come and pass of instilling its guidance. Viewed in this way suffering is only the stuff, the implement, of sadhana or is it anything else? Accepting all anguish as mere material for sadhana we can become eligible servants of the people by abnegation of indulgence in pleasure. 

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 33-34)