Thursday, 9 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Thursday, 09 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण द्वितीया, वि.सं.-२०६८, गुरुवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
सेवा ही जीवन का सार सर्वस्व

       बुराई क्या है? स्वाधीनता का दुरूपयोग ही वास्तव में बुराई है । आप विचार करके देखो - यदि ऐसा विधान होता कि हम झूठ बोलने की सोचते तो वाणी अवरुद्ध हो जाती । ऐसा होने पर क्या हमको यह भास होता कि हम सत्य बोलते हैं ? क्या राय है? तो प्रभु ने यह विधान नहीं बनाया । इसलिए प्रभु ने यह विधान नहीं बनाया कि मानव मिली हुई स्वाधीनता के सदुपयोग से यह स्वयं स्वीकार करे कि मैं धर्मात्मा हूँ, मैं जीवनमुक्त हूँ, मैं भगवद्भक्त हूँ । तो धर्मात्मा होने की उपाधि, जीवनमुक्त होने की उपाधि, भगवद्भक्त होने की उपाधि 'यह' के अन्तर्गत नहीं है, यह 'स्व' के अन्तर्गत है ।

        यह जो ज्ञान का प्रकाश मिला है, आस्था का तत्व मिला है और बल का तत्व मिला है, यह साधन-सामग्री है और मानव साधक है । तो साधन-सामग्री आपको मिली हुई है, उसके सदुपयोग की स्वाधीनता आपको मिली हुई है । अब आप सोचिए कि फिर भी हम यदि साधन-निष्ठ नहीं होते तो इसमें किसी परिस्थिति विशेष का हाथ नहीं है, यह हमारा ही प्रमाद है। साधन-सामग्री भी हमें प्राप्त है, उसके सदुपयोग की स्वाधीनता भी हमको प्राप्त है फिर भी हम यदि उस साधन-सामग्री का सदुपयोग नहीं करते तो यह हमारी ही भूल है ।

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 24-25) । 

Service: The only quintessence of life

(Continuance from the last blog-post)

        What is evil? In fact, it is only perverse misuse of freedom given to us. Look! Had it been a divine dispensation for speech to be blocked forthwith as we tended to tell a lie, could we get the semblance to it when speaking the truth? What is your opinion? It is why God did not allow it to come to pass. He did not let it come into force in order that man, by using allocated freedom, should realize on his own that he is a religious being, enlightened and devoted to God. So that the degree of being religious, enlightened or devotee of God is not for ‘this’, the world, to give, it is cognized by man himself in his inward awareness.

        This light of awareness, essence of faith and element of strength serviceable to man are materials for sadhana and man is the sadhaka. You have already been given the implements of sadhana as well as the freedom to use them. Nevertheless the fact that we don’t become dedicated to sadhana is really strange and curious. It is not due to any particular circumstances, it is due to our own want of attention, our own carelessness. Despite all the in-built equipment for sadhana and the freedom to use them the failure to implement is due to our own confusion of negligence. Not to put these to good use is our own inadvertent omission.

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 32-33)