Wednesday, 08 February 2012
(फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, बुधवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
सेवा ही जीवन का सार सर्वस्व
जब हम स्वधर्मनिष्ठ हो जाते हैं, तो जीवन में स्वतः साधना की अभिव्यक्ति होती है अर्थात् साधना और जीवन एक हो जाता है । साधना है क्या ? साधना सत्य के संग का परिणाम है । जहाँ आपने ज्ञान-विरोधी कर्म का त्याग कर दिया, आप धर्मात्मा हो गए; ज्ञान-विरोधी विश्वास का त्याग कर दिया, जीवन-मुक्त हो गए और और ज्ञान-विरोधी सम्बन्ध का त्याग कर दिया, भगवद्भक्त हो गए । इन तीनों बातों में मानव सर्वदा स्वाधीन है - धर्मात्मा होने में, जीवन-मुक्त होने में और भगवद्भक्त होने में ।
इसी सत्य को बताने के लिए यह कहा गया है कि हम जिस बात में स्वाधीन हैं, उस स्वाधीनता का हम दुरूपयोग न करें अपितु सदुपयोग करें । स्वाधीनता के सदुपयोग से ही भगवत्-विश्वास सजीव हो जाता है । जो स्वाधीन हो जाता है, वह मुक्त हो जाता है और जो मुक्त हो जाता है, वह भक्त हो जाता है। स्वाधीनता के सदुपयोग से ही मानव धर्मात्मा हो जाता है । तो हमें मिली हुई स्वाधीनता का सर्वदा ही सदुपयोग करना चाहिए।
-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 24) ।
Service: The only quintessence of life
(Continuance from the last blog-post)
When dedicated to our own religion of commitment to truth, sadhana expresses itself on its own, that is to say, it becomes integral to life. What is sadhana? Sadhana is the consequence of communication with the truth of life. The religious soul in you opens out as soon as you renounce the action antagonistic to wisdom. You get enlightened by renouncing faith in conflict with the light of inward awareness. And you become the devotee of God by self-denial of kinship contrary to wisdom. Man is ever free for effecting the three sublime aspirations of being religious, enlightened and devoted to God.
Affirmation not to misuse but to put to good use has been made in order to point out the truth of only this innate human freedom. Faith in God becomes lively only by the positive use of innate freedom. Freedom leads to enlightenment and the he who is enlightened becomes the devotee of God, it is by putting freedom alone to good use that the religious soul is unfolded in man. So that we should always utilize the freedom allotted to us.
-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 32)