Saturday, 4 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Saturday, 04 February 2012
(माघ शुक्ल द्वादशी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        कोई काम करने मात्र से कोई मालिक नहीं हो जाता । और काम करने मात्र से कोई नौकर नहीं हो जाता। मालिक सृष्टि का एक है, वह व्यक्ति नहीं है । और भैया जो कुछ भी चाहता है, जरा गम्भीरता से सोचना, बुरा मत मानना कोई भाई, जो कुछ भी चाहता है वह नौकर तो है ही । नौकर में और मालिक में फर्क क्या है ? यही फर्क है कि जो मालिक होता है, वह की हुई सेवा के बदले में कुछ चाहता नहीं । और नौकर जो है, वह की हुई सेवा के बदले में अपनी मार्केटिंग वैल्यू बताता है कि मुझे यह दोगे तो मैं ऐसा करूँगा। तो जो अचाह नहीं है वही नौकर है । चाहे में हूँ, चाहे कोई हो । 

        जो परमात्मा को सृष्टि का मालिक मानता है, वह देहाभिमानी नहीं है । तो मैं आपसे यह पूछना चाहता हूँ कि आपको जो वस्तु मिली है, जो योग्यता मिली है, जो सामर्थ्य मिली है वह किसी की दी हुई है या आपकी उपार्जित है? दी हुई है, तो जिसकी दी हुई है वह मालिक है कि आप मालिक है? मालिक सृष्टि का एक है, दो नहीं हो सकते क्योंकि सृष्टि एक है ।

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 21) । 

Our urgent need

(Continuance from the last blog-post)

        None becomes owner, master or servant merely by performing work. The master of creation is one, only one; he is not an individual. And, brother, he who wants anything - think a bit seriously, don’t take ill of it – he who wants anything is definitely the servant. What is the difference between the servant and the master? The only difference is that he, the master, doesn’t want anything in lieu of the service rendered whereas the servant is characterized by pointing out the price of the kind of the service performed. It is clear, then, that he who is not desireless is the servant whether anyone else or I. 

        He who has placed his faith in the supreme spirit as the master of creation is not subject to conceit of the body. I want to ask if the object, ability and power are given away to you by someone or are earned by yourself. If these are given, who is the master – he who has given away or yourself? The master of creation is one; he can’t be two because the creation is a single entity in wholeness.

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 29-30)