Sunday, 5 February 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Sunday, 05 February 2012
(माघ शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता

        अगर इस सत्य को आप स्वीकार कर सकते हैं कि इस सृष्टि का प्रकाशक और आधार एक है तो इस प्रकाशक ने तो कभी कहा नहीं कि सृष्टि मेरी है । और आप सोचते हैं, तन मेरा है, मन मेरा है, प्राण मेरे हैं, मैं योग्य हूँ, योग्यता मेरी है, सामर्थ्य मेरी है । जो लोग मिली हुई वस्तु को अपनी मान लेते हैं; हम क्या बतावें, बेईमानों में तो पहला नाम है ही उनका, वे चोर भी हैं ।

         सबसे बड़ा चोर दुनिया में वही है, बेईमान वही है जो मिली हुई वस्तु को अपनी मल्कियत मान लेता है । मेरे पास इतना रुपया जमा है, मैं चाहूँगा सो देख लूँगा । अरे भैया, रूपयेके अधीन होकर तुम शान्ति का सुख लेते हो, बलके अधीन होकर तुम मुक्तिका सुख लेते हो, योग्यता के अधीन होकर तुम भक्ति का सुख लेते हो । यह भ्रम है, यह चोरी है, यह बेईमानी है ।

        मैं यह जीवन का सत्य आपसे निवेदन कर रहा हूँ, मैं किसी व्यक्ति से कुछ नहीं कह रहा हूँ । इसलिए मैं आपसे यह निवेदन करना चाहता था कि यदि आज आपके सामने देहाभिमान-रहित होने का प्रश्न नहीं है तो भाई कब होगा ? कालान्तर में यह नहीं होगा, धीरे-धीरे यह नहीं होगा । 

        अगर देहाभिमान-रहित होने का प्रश्न है, तो जिस वक्त आपको पता चल गया कि देहाभिमान के कारण मुझको क्षोभ होता है, मुझको क्रोध आता है, मुझमें कामनाओं का जन्म होता है तो उसी समय आपको सजग होकर सावधानीपूर्वक जीवन का पहला प्रश्न होना चाहिए कि जबतक देहाभिमान का नाश नहीं करूँगा तबतक चैन से नहीं रहूँगा । पूरी अभिलाषा देहाभिमान के नाश की होनी चाहिए ।

- 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 21-22) । 

Our urgent need

(Continuance from the last blog-post)

        You can have faith and accept that the luminescent source and foundation of creation is the one spirit-power even if he has never proclaimed that the creation is his. You opine instead that the body, mind, the pranas, the vital forces, belong to you; you are able; ability and capacity are your own. Those who personalize and misappropriate the given object as their own – what should I predicate – theirs is the first name among the dishonest, they are also thieves. 

        The biggest thief, the most dishonest in the world is he who misapprehends the given object as his private estate. “I have such a big deposit of money, I can see through what I want to happen”. So the process of increase of ego gets stirred up in them. Oh brother! You enjoy the pleasure of peace from subjection to money, the pleasure of freedom from subjection to might and pleasure of devotion from subjection to ability. This is delusion, theft and dishonesty.

        I am urging on you the truth of life; I am not blaming anything on any individual in particular. If you don’t realize the urgency of emancipation from vanity of the body, today, when it will become your compelling need, the only problem before you, crying for solution? It won’t assume urgency in future, slowly, at some alternative time. 

        As soon as you diagnose and pinpoint that vexation is caused to you by self-conceit, anger flames up in you, desires arise and multiply because of it, you should wake up to alertness and resolve carefully to let it become the prime question of your life not to rest so long as identity with, or vanity of the body is not demolished. The yearning for demolition of conceit of the body should be total, complete. 

- From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 30)