Friday, 03 February 2012
(माघ शुक्ल जया एकादसी, वि.सं.-२०६८, शुक्रवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
हमारी आवश्यकता
देहाभिमान से रहित होने का उपाय है - सम्मान और अपमान का सदुपयोग। अगर मैं उन साधक की जगह होता तो कहता कि अच्छा माताजी, आपने बता दिया । आपका नाम पूछूँगा तो आपका नाम लिया करूँगा, आप मुझको क्षमा करें । और क्षुभित बिल्कुल न होता । मैं तो कहता हूँ कि यह लोगों का भ्रम है कि जो माता, बहन और बेटी कहने से एतराज करें । यह भ्रम है ।
उस साधक से यह कहना चाहता हूँ कि अगर तुमसे किसी ने नौकर कह दिया तो तुम नौकर थे क्या ? किसी करोड़पति को कोई कंगाल कह दे तो वह हँसेगा कि क्रोध करेगा । कोई करोड़पति सम्पत्ति-शाली हो और कोई उससे कह दे कि तुम कंगाल हो तो वह हँसेगा कि यह जानता नहीं है; अबोध है । तो अबोध की बात का प्रभाव अपनेपर होना, यह साधक का धर्म तो नहीं है । और इसका कारण क्या है ? कभी हमसे आकर व्यक्तिगत सत्संग करते नहीं । खुद जानते नहीं और सुनते हैं नहीं ।
-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 20-21) ।
Our urgent need
(Continuance from the last blog-post)
The measure for getting rid of vanity of the body is putting honor and insult to good use. Had I been in place of the sadhaka with the angry woman I would have responded saying, “Good, Mataji”, you corrected me. Whenever I have to ask, I will call your name; I beg to be excused. I would have remained absolutely unperturbed. Let me affirm that it is a misunderstanding of the people to protest against being called mother, sister and daughter. It is an utter misapprehension.
I want to offer a counsel to that sadhaka also who flew into rage on being named ‘servant’. Were you actually a servant if someone called you so? If someone a millionaire is addressed ‘indigent’, will he laugh or get into rage? If someone calls the affluent millionaire a needy, poor person, he will laugh it away because the man doesn’t know, he is ignorant. And it’s not the inner disposition of a sadhaka to be affected by the comment of the ignorant. What cause the fire of angry reaction, then? You never come to me for interactive Satsang. You neither know on your own nor listen to the call of the saint.
-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 29)