Tuesday, 24 January 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Tuesday, 24 January 2012
(माघ शुक्ल प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
जीवन का सत्य

        अगर आपकी कोई शारीरिक सेवा करता है तो आप उसके उपकार को इसलिए नहीं मानते कि उसने सेवा की है, आप उपकार को इसलिए मानते हैं क्योंकि शरीर को आपने अपना माना है । ऐसे ही सेवा करनेवाला अगर आप पर एहसान करता है, तो वह सेवा नहीं करता, वह परमात्मा की दी हुई वस्तु को अपनी मानकर बेईमान बनकर संसार में मिथ्या अभिमान करता है ।

        तो मैं यह निवेदन कर रहा था आपसे, कि ये सारी बातें क्यों नहीं जीवन में आती ? इसलिए नहीं आती कि सचमुच हम अचाह होकर रहते ही नहीं । हम निर्मम होकर रहते ही नहीं ।

         अगर हम अचाह होना पसन्द करें, अगर हम निर्मम होना पसन्द करें तो हमारा करके कुछ है ही नहीं और हमें संसार से कुछ चाहिए ही नहीं, तो संसार हमारा क्या अपमान करेगा? संसार हमें क्या हानि पहुँचायेगा ? न हानि पहुँचायेगा और न अपमान करेगा । संसार तब अपमानित करेगा जब संसार कि वस्तु को अपना मानेंगे, जो संसार से कुछ चाहेगा । संसार की वस्तु का उपयोग संसार की सेवा में करना और संसार (शरीर) के लिए संसार से भिक्षा माँगना यह अपमान तो नहीं है, बन्धन तो नहीं है ।

        जो उनका अपना बनाया हुआ बन्धन है । जो सम्पत्ति, योग्यता, वस्तु को अपनी मानकर, उनपर अधिकार जमाकर उसका उपयोग करते हैं, वह बन्धन अपना मानने में है या अपना न मानने में है । तो आपको साफ दिखाई देगा कि अपना न मानने में बन्धन नहीं है । अपना न मानने में अशान्ति नहीं है। अपना न मानने में अगर बन्धन नहीं है, अशान्ति नहीं है तो फिर क्या है ? शान्ति है, स्वाधीनता है ।

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 13-14) । 

Truth of life

(Continuance from the last blog-post)

        If someone offers you physical service, you regard the beneficence valuable not because he has rendered service, you deem the help valuable because you believe the body to be your own. Similarly, if the helping person feels that he has obliged you, he doesn't actually serve. In fact, he has become dishonest by believing Divine gifts as his own, he indulges in false pride and displays it in the world.

        Thus, I was submitting to you, why all these truths don't get translated in your life ? The only reason is that we don't live desirelessly, free from the egoistic sense of 'me' and 'mine'.

        If we were keen on being desireless, if we would rise above 'me-mine', and as such there would be nothing as our own and we would require nothing at all from the world, what insult the world would deal out to hurt us ? It will neither insult nor harm us. The world insults when we thrust our right on its objects and want something from it. To expend the resources or objects of the world for utilizing to serve it or even to beg from it for doing good to it is neither insult nor bondage.

        Bondage is self-made, self-induced, fomented by egocentricity. Those who regard wealth, abilities and objects as their own to serve selfish ends have put themselves in bondage. If they don't regard them as their own, they would be free of it. It would be clear that there is no bondage in abnegation of ownership. There is no restlessness in renunciation. If there is no bondage in forgoing, in letting go, what then remains? Only peace, only freedom remains. 

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 23)