Monday, 23 January 2012
(माघ मौनी एवं सोमवती अमावस्या, वि.सं.-२०६८, सोमवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
जीवन का सत्य
भक्त होने से आपमें भक्ति-रस की अभिव्यक्ति होती है और भक्ति-रस की अभिव्यक्ति से आप भगवान् को रस दे सकते हैं या भक्ति-रस से भगवान् को रस मिलता है।
तो मनुष्य का जो भगवान् के साथ सम्बन्ध है, वह भगवान् से कुछ माँगने के लिए नहीं है; भगवान् का प्रेमी होने के लिए है; और मनुष्य का जो सम्बन्ध संसार के साथ है, वह संसार से कुछ लेने के लिए नहीं है अपितु उदार होने के लिए है । अब आप सोचिए, भगवान् के लिए हम प्रेमी हो जाएँ, संसार के लिए हम उदार हो जाएँ । यह कब होगा ? जब संसार से हम कुछ न चाहें और भगवान् से भी हम कुछ न चाहें ।
अब आप देखिए, जिसे अपने लिए कुछ नहीं चाहिए, वह अशान्त होगा क्या ? वह पराधीन होगा क्या ? वह देहाभिमानी रहेगा क्या ? उसका देहाभिमान भी गल जाएगा, पराधीनता भी मिट जाएगी, अशान्ति भी मिट जाएगी । समस्त विकार नाश हो जाएँगे और वह निर्विकार जीवन से अभिन्न होकर कृतकृत्य हो जाएगा ।
इस दृष्टि से विचार किया जाय तो आपके इस मानव-जीवन का बड़ा भारी महत्व है । आप संसार के लिए उदार हो सकते हैं, प्रभु के लिए प्रेमी ही सकते हैं और आप अपने लिए अचाह हो सकते हैं ।
लेकिन अचाह का अर्थ बड़ा पेचीदा है । पैर में दर्द हो रहा है, डाक्टर मौजूद है । अब हम कैसे कहें, कैसे दिखाएँ, यह कैसे कहें कि हमारे पैर में दर्द है, देख लीजिए । क्यों ? ऐसा कहने से अगर उसने नहीं देखा, तब तो बड़ा अपमान हो जाएगा । लेकिन अपमान तब हो जाएगा, जब आप यह समझेंगे कि यह मेरा पैर है।
अरे भाई ! यह उसी का पैर है, जिसका डाक्टर है । तो डाक्टर किसी बीमार के कष्ट को नहीं देखेगा, तो परमात्मा के विधान को तोड़कर वह परमात्मा का अपमान करेगा कि आपका अपमान करेगा । लेकिन अगर आपको अपमान मालूम होता है तो इसलिए मालूम होता है क्योंकि आप परमात्मा की वस्तु को अपनी वस्तु मान लेते हैं ।
-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 12-13) ।
Truth of life
(Continuance from the last blog-post)
Ecstatic elixir of Divine devotion can manifest in you by your dedication to it and God Himself is thrilled when you offer the bliss of ecstacy to him.
It follows from the above that the rapport of man with God is not for begging something from him, it is to be metamorphosed into His lover-devotee, and the relationship of man to the world is not to take anything from it but to remain generously responsive to it. Now, let us reflect on our potentiality of becoming a lover-devotee of God and generous, magnanimous to the world. How or when can it happen ? it can be realized only when we don't want anything from the world nor do we seek anything whatever from God.
Now see the point : would he be restless who wants nothing for himself ? Would he be under any state of subjection to the other ? Would he have any vanity of the body caused by identity with it ? His vanity of the body will melt away, his subjection to others will vanish and his restlessness will disappear. All his impurities will desolve and he will be self-fulfilled in oneness with a life of sterling purity.
If considered with this viewpoint, your human life is blessed with stupendous importance. You can be generous, open-handed, to the world, a lover-devotee of God and desireless for your own self.
But the meaning of being desireless is highly complicated. Let us imagine a situation to illustrate its complexity. There is pain in leg and the doctor is present. How can i speak to him, how to consult him, how can i tell him that there is pain in my leg, examine it. Why ? If I complain about the pain and he doesn't attend to it, I shall be grievously insulted. But the feeling of insult will be registered only if I conceive the leg as my own, belonging to me.
But the truth is that the leg belongs to the one to whom the doctor belongs. So that if the doctor doesn't attend to your trouble, he violates the law of God. Then in that case, does he insult the Supreme Spirit or does he insult you ? But if you deem it as an insult to yourself, it is so because you regard the object of God, your leg, as your own.
-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 22-23)