Sunday, 22 January 2012
(माघ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, रविवार)
(गत ब्लागसे आगेका)
जीवन का सत्य
आप कहेंगे कि अगर हमें जो करना चाहिए वह कर लिया तो वेदना नहीं होगी, लक्ष्य की प्राप्ति होगी । लक्ष्य की प्राप्ति होने के बाद - सभी को लक्ष्य प्राप्त हो जाय - यह वेदना होगी । इसी बात को बताने के लिए किसी लेखक ने लिखा था कि भगवान् बुद्ध कहते हैं कि जो मानव उस जीवन का अधिकारी है, जहाँ पराधीनता का, अशान्ति का, जड़ता का, अभाव का और नीरसता का प्रवेश ही नहीं हो सकता; जो मानव इतने ऊँचे जीवन का अधिकारी है, वही मानव आज अपनी ही भूल से कीड़े-मकौड़ों की तरह जीता है । क्या है यह ? क्या यह वेदना नहीं है ?
मैं यह निवेदन कर रहा था कि जो सही कर्तव्य-पालन करके अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं, उन्हें इस तरह की वेदना होती है कि सभी को सफलता मिलनी चाहिए । ऐसे पर-दुःख-कातर व्यक्तियों को समाज ने महापुरुष कहा ।
उनको समाज ने कभी महापुरुष नहीं कहा जिनके जीवन में समाज के हित का उत्तरदायित्व नहीं जगा । जिन्होंने समाज को विश्वास दिलाया कि जो जीवन मुझे मिला है वह तुम्हें भी मिल सकता है उनको समाज ने कभी नापसन्द नहीं किया ।
इसलिए महानुभाव, आप अपने ही द्वारा बुराई-रहित होकर धर्मात्मा हो सकते हैं, धर्म के अभिमान और फल को छोड़कर आप मुक्त हो सकते हैं, और मुक्ति से मुक्त होकर आप भक्त हो सकते हैं ।
-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 11-12) ।
Truth of life
(Continuance from the last blog-post)
If you maintain that you have done all that should be done and as such you have no regret of missing out effort, then you will realize the goal. After your realization of peace, enlightenment and love you will have the anguished concern of compassion that all who seek should obtain the goal. It was in order to point out this concern of compassion that a certain author had cited Lord Buddha as saying that man with birthright to a life where captivity, restlessness, inertia, want and boredom can't even enter, man who deserves rightfully such an elevated life, the same human being by his own omission, grovels like vermins and insects on the earth. What is this ? Isn't it a pained concern of compassion ?
I was submitting that those who realize the goal of life by discharging their right duty are inspired by the benevolent concern that all might realize the goal of integral fulfillment. Such individuals distressed by anguish of debasement in others were marked greatmen by the society.
Never did society regard them great in whose life, responsibility for the well-being of society was not called forth. Society never disliked, disregarded, those who created the faith and confidence in it that the life of unbounded awareness and bliss they have experienced can be realized also by all of them.
Therefore, celebrated beings, by getting rid of evil with self-effort alone, you can get to the religious soul in you, and be blessed with spiritual freedom by eschewing the fruit and pride of evolution to the religious being. And then, you can be transmuted into the devotee of the Lord God by rising beyond freedom of enlightenment.
-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 21-22)