Wednesday, 25 January 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥ (Read in English below Hindi post)

Wednesday, 25 January 2012
(माघ शुक्ल द्वितीया, वि.सं.-२०६८, बुधवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
जीवन का सत्य

        जहाँ शान्ति और स्वाधीनता है वहाँ हम प्रेमी हो सकते हैं, उदार  हो सकते हैं। अगर हमारे जीवन में शान्ति नहीं है, अगर हमारे जीवन में स्वाधीनता नहीं है, तो हम सच्चाई के साथ न तो उदार हो सकते हैं, न प्रेमी हो सकते हैं और न अचाह हो सकते हैं ।

       इस प्रकार जब हम सबकी बुद्धि सम हो जाय यानि विवेकवती हो जाय तो हृदय अनुरागी हो जाएगा और अहं अभिमान-शून्य हो जाएगा । प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए आप परमात्मा से सम्बन्ध स्वीकार करें । स्वीकार करना कोई क्रिया थोड़े ही है ।

        जैसे आपने अपनी माँ को माँ स्वीकार किया, बाप को बाप स्वीकार किया, भाई को भाई स्वीकार किया वैसे ही आप परमात्मा के साथ सम्बन्ध स्वीकार करें । यह सम्बन्ध जोड़ने की स्वाधीनता तो आपको है न ? जैसी मेरी माता है, मेरे पिता है, मेरे भाई है, मेरे बन्धु हैं ऐसे ही मेरे प्रभु हैं ।

        जैसे आप धन की महिमा को मानते हैं कि धन होगा तो काम चल जाएगा ऐसे ही प्रभु की महिमा स्वीकार करें और फिर परमात्मा की प्राप्ति की आवश्यकता अनुभव करें । स्वीकृति तो तुम्हारे अपने द्वारा ही होगी । 

        देखो, अगर क्रिया के द्वारा काम बन जाता तो, आज के वैज्ञानिक युग में ऐसे यन्त्र बन जाते कि यन्त्र के द्वारा गायत्री मन्त्र सिद्ध हो जाता । लेकिन जो अपने द्वारा करने वाली बात है वह क्रिया के द्वारा कैसे हो जाएगी भाई ?

-(शेष आगेके ब्लागमें) 'साधन त्रिवेणी' पुस्तक से, (Page No. 14-15) । 

Truth of life

(Continuance from the last blog-post)

        In the inner ambience of peace and freedom, we can be transformed into lover of God and afford to be magnanimous to the world. In case there is no peace in our life, no freedom, we can neither be truly generous to the world nor a Divine lover nor a desireless aspirant.

        In this way, when our intelligence, luminous with innate wisdom, attains to equanimity, the heart will get enamored of love for God and the ego will get absolutely free of vanity. For manifestation of love you ought to admit and recognize your innate rapport with God, the Supreme Spirit. This acceptance is neither action nor ritual doing of any kind at all. 

        The Lord God is mine just as my mother is mine, my father is mine, my brother or my friendly fellow-being is mine. 

        Just as you cherish the glory of wealth so much so that if it is plentiful, all your needs will be fulfilled, similarly, accept the triumphant magnificence of all-powered God and feel the need of realizing Him. This acceptance or commitment in faith will be a choice of your own, an accomplishment of the core of your being.

        Look! If such a soulful need for God could be fulfilled mechanically, through ritual exercises, the hi-tech scientists of today could have devised instruments to prove the esoteric power of Gayatri mantra. But brother, how can that which is a realization of the inmost being, on one’s own, can be effected by mere ritual of doings?

-(Remaining in the next blog) From the book 'Ascent Triconfluent', (Page No. 23-24)