Tuesday, 10 January 2012
(माघ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.-२०६८, मंगलवार)
सब साधनों का सार
1. भक्ति : सब प्रकार से प्रेम के पात्र हो जाओ यही भक्ति है ।
2. मुक्ति : अपनी प्रसन्नता के लिए किसी अन्य की ओर मत देखो । यही मुक्ति है ।
3. त्याग : संसार की दासता मन से निकाल दो यही त्याग है ।
4. जो कुछ हो रहा है, वह मंगलमय विधान से हो रहा है - ऐसा मान लेने से निश्चिन्तता आती है ।
5. जो शरीर, प्राण आदि वस्तु व्यक्ति को अपना नहीं मानता - वह निर्भय हो जाता है ।
6. जो "है" (भगवान्) वही मेरा अपना है - इसमें जिसने आस्था स्वीकार कर ली, उसी में प्रियता उदित होती है ।
7. निश्चिन्तता से शान्ति, निर्भयता से स्वाधीनता तथा प्रियता से रस की अभिव्यक्ति होती है । यही मानव की माँग (लक्ष्य) है ।
8. उसे सब कुछ मिल जाता है जो किसी का बुरा नहीं चाहता है ।
9. कार्य उसी का सिद्ध होता है, जो दूसरों के काम (न्यायोचित काम) आता है ।
10. मोहयुक्त क्षमा, क्रोधयुक्त त्याग और लोभयुक्त उदारता निरर्थक है ।
11. भाव में पवित्रता हो, कार्य में कुशलता हो और लक्ष्य (परमात्मा) पर दृष्टि हो, तो प्रत्येक प्रवृति से परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है ।
12. पालन-पोषण व शिक्षा पाकर ही मानव कुछ देने के योग्य होता है । इससे स्पष्ट है कि लिया हुआ देना है । परिवार के जो सदस्य समर्थ हैं वे असमर्थ बालकों और वृद्धों की सेवा करें । यह सद्भावना समाज के लिए उपयोगी है । जिसकी सेवा की जाती है उसकी अपेक्षा सेवा करनेवाले का अधिक विकास होता है ।
13. सम्पन्न व्यक्ति दुखियों के काम आयें - क्योंकि समस्त बल निर्बलों की धरोहर है । सबके भले में ही अपना भला है । सबल व निर्बल की एकता ही समाज का सुन्दर चित्र है ।
14. संसार उसी को प्यार करता है जो दूसरों के काम आता है। और संसार के काम वही प्राणी आता है जो सब प्रकार से भगवान् का हो जाता है ।
15. पूर्ण जीवन क्या है ? - शरीर विश्व के काम आ जाए, हृदय प्रीति से छका रहे और अहम् अभिमान शून्य हो जाय ।
॥ हे मेरे नाथ! तुम प्यारे लगो, तुम प्यारे लगो! ॥