Monday, 9 January 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Monday, 09 January 2012
(पौष शुक्ल पूर्णिमा, वि.सं.-२०६८, सोमवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
अहंकृत-रहित होना

        जिसने हमारा और जगत् का निर्माण किया, उसने अपने ही में से किया है । इस दृष्टि से हम और जगत् उससे अभिन्न हैं। किन्तु प्रमाद के कारण आज हमें जगत् और जगत्पति से भिन्नता प्रतीत होती है । इस भिन्नता का अन्त किए बिना जीवन उपयोगी नहीं हो सकता ।

        जब हम जगत् से कुछ आशा करते हैं, तब जगत् से भिन्नता प्रतीत होती है और जब जगत्पति में हमारी अगाध प्रियता नहीं रहती, तब उनसे हमारी भिन्नता प्रतीत होती है ।

        यदि विचारपूर्वक जगत् से आशा न करें और मिली हुई वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य, जो जगत्पति ने जगत् की सेवा के लिए दी है, वे उसी कि सेवा में अर्पित कर दें, तो शरीर आदि से असंगता और जगत् से अभिन्नता स्वतः हो जाएगी, जिसके होते ही शरीर और विश्व की एकता स्वतः सिद्ध होगी । शरीर और विश्व की एकता का अनुभव हमें जगत्पति से नित्य सम्बन्ध तथा आत्मीयता जाग्रत करने में सहयोगी होगा, कारण, कि जब शरीर अपना करके नहीं रहा, तब अपनी अहंता उन्हीं की आत्मीयता में परिणत हो गई, जिन्होंने मेरा और जगत् का निर्माण किया था । इस दृष्टि से मानव अचाह हो कर जगत्पति से अभिन्न हो, कृतकृत्य हो जाता है ।

        अचाह होते ही सेवा और प्रेम सहज हो जाता है । प्रेम से सेवा और सेवा से प्रेम पोषित होता है । अथवा यों कहो कि प्रेम का क्रियात्मक रूप सेवा और सेवा का लक्ष्य प्रेम है । प्रेम किसी प्रकार की भिन्नता नहीं रहने देता, यह प्रेम की महिमा है ।

        पर जबतक साधक अपने लिए कुछ भी करता है, तबतक सेवा और प्रेम का अधिकारी नहीं होता । जिसे अपने लिए कुछ भी करना नहीं है, वही अपने लिए उपयोगी सिद्ध होकर सभी के लिए उपयोगी होता है ।

 -  'साधन-निधि' पुस्तक से । (Page No. 24-25)