Sunday, 8 January 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Sunday, 08 January 2012
(पौष शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.-२०६८, रविवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
अहंकृत-रहित होना

        प्राप्त ज्ञान का प्रकाश मिली हुई सामर्थ्य, वस्तु, योग्यता आदि से सम्बन्ध-विच्छेद करने की प्रेरणा देता है, अर्थात् वास्तविकता को स्पष्ट करता है । वास्तविकता को अपनाते ही अपना करके वही सिद्ध होता है, जो अपने को जानता है । साधक जिसको (संसार को) जानता है, वह उसका अपना नहीं है, अपने लिए नहीं है, यही सिद्ध होता है ।

        कैसी विचित्र बात है कि अपने वे (संसार के रचयिता) हैं, जिन्हें हम नहीं जानते, अपितु जो हमें जानते हैं । उन्हीं में अविचल आस्था-श्रद्धा और विश्वास पूर्वक आत्मीयता स्वीकार करना है । मिली हुई किसी भी वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदि ने एक बार भी नहीं कहा कि हम तुम्हारे हैं ।

        हम जो (संसार के रचयिता) अपने हैं, उन्हें अपना न मानकर, जो अपना नहीं हैं, उसे (संसार को) अपना मानते हैं। इस भूल का अन्त करने के लिए प्रत्येक साधक को ममता, कामना, तथा अधिकार-लोलुपता को त्याग, अहंकृत-रहित होना अनिवार्य है । तभी जीवन अपने लिए उपयोगी होगा । अपने लिए उपयोगी होते ही जगत् के प्रति उदारता और जगत्पति के लिए प्रेम स्वतः जाग्रत होता है । यह मंगलमय विधान है ।

 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'साधन-निधि' पुस्तक से । (Page No. 24)