Saturday, 7 January 2012

॥ हरि: शरणम्‌ !॥

Saturday, 07 January 2012
(पौष शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.-२०६८, शनिवार)

(गत ब्लागसे आगेका)
अहंकृत-रहित होना

        सेवा और त्याग दोनों ही दैवी सम्पत्ति हैं, मनुष्य की उपार्जित नहीं हैं, किन्तु प्रमादवश साधक आरोप कर लेता है कि 'मैंने त्याग किया है' और 'मैं सेवा करता हूँ' । जब अपना करके अपने में कुछ है ही नहीं, तो त्याग कैसा ? और जो वस्तु जिसकी है, उसे मिल गई, तो सेवा कैसी ? सेवा और त्याग तो वैज्ञानिक तथ्य हैं, जो स्वतः सिद्ध हैं । उनमें करने कराने का अभिमान भूल-जनित है। 'अपने लिए अपने को कुछ नहीं करना है', यह अपना लेने पर ही जीवन निर्ममता, निष्कामता एवं अधिकार-लोलुपता से रहित होता है ।

        कभी-कभी साधक यह अनुभव करता है कि अपना दुःख मिटाने के लिए ही उसने सेवा तथा त्याग को अपनाया है । इस दृष्टि से तो ऐसा प्रतीत होने लगता है कि सब कुछ उसने अपने लिए ही किया है । परन्तु विचार यह करना है कि दुःख की उत्पत्ति का मूल क्या है ? तो यह स्पष्ट विदित होता है कि भूल ही दुःख की उत्पत्ति का मूल है । भूल-रहित होने का परिणाम ही सेवा और त्याग है । अतएव भूल-रहित होना ज्ञान है, कर्म नहीं। इस कारण ज्ञान के प्रभाव से ही सेवा और त्याग की सिद्धि होती है।

        ज्ञान प्रत्येक साधक में मौजूद है । ज्ञान के अनादर से ही भूल उत्पन्न होती है । निज-ज्ञान का अनादर मानव स्वयं कर बैठता है। जिस अनन्त ज्ञान से मानव को ज्ञान मिला है, वह मानव का इतना अपना है कि उसे यह अनुभव ही नहीं होने देता कि प्राप्त ज्ञान उसका अपना नहीं है । यह मानव के प्रति अनन्त की आत्मीयता है । किन्तु मानव प्रमादवश, जो उसे अपना मानता है, उसे वह अपना नहीं मानता, अपितु उससे मिली हुई वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदि को अपना मान लेता है ।

 - (शेष आगेके ब्लाग में) 'साधन-निधि' पुस्तक से । (Page No. 23-24)